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पार्टी का संगठनात्मक ढांचा मोदी के सामने सिर के बल खड़ा है

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पार्टी का संगठनात्मक ढांचा मोदी के सामने सिर के बल खड़ा है

 Vinay Oswal विनय ओसवाल, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक
 
“एक बार जब किसी सरकार का सुप्रीमो मतदाताओं के मन-मस्तिष्क पर सीधी पकड़ स्थापित कर लेता है, तो मतदाताओं के सामने बाकी के मुद्दे महत्वहीन हो जाते हैं.”

“एक बार जब किसी सरकार का सुप्रीमो मतदाताओं के मन-मस्तिष्क पर सीधी पकड़ स्थापित कर लेता है, तो मतदाताओं के सामने बाकी के मुद्दे महत्वहीन हो जाते हैं.”

कांग्रेस से भिन्न भाजपा में कभी जीवंत संसदीय कार्यकारी कमेटी और परिषदें अपने सदस्यों-कार्यकर्ताओं के निर्णयों को सरकार के सुप्रीमों (मुखिया) तक पहुंचाने के बजाय उसकी ‘हां’ में ‘हां’ मिलाने और उसके आदेशों को कमेटी और परिषदों के सदस्यों से लेकर नीचे जमीनी कार्यकर्ताओं तक पहुंचाने में लग गए हैं. यानी पार्टी का संगठनात्मक ढांचा पाऊं के बल खड़ा होने के बजाय मोदी के सामने सिर के बल खड़ा हो गया है.

क्या इसका नुकसान अकेली भाजपा ही उठाएगी या देश की लोकतांत्रिक संस्थाएं और व्यवस्थाएं भी उठाने के लिए बाध्य होंगी ?

इसी रोग से इंदिरा गांधी भी ग्रस्त रही है. 1967 में सङ्गठन की बागडोर हाथ में आने के बाद नेहरू काल के कद्दावर और महत्वाकांक्षी नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाने की शुरुआत कर दी थी. धीरे-धीरे हर टूट के बाद वह खुद ही एक दिन स्वयम्भू बन गईं. वर्ष 1969 में राष्ट्रपति के चुनावों में कांग्रेस के अधिकृत चेहरा नीलम संजीव रेड्डी के मुकाबले स्वतंत्र उम्मीदवार श्रमिक नेता वी. वी. गिरी की जीत के पीछे भी इंदिरा जिम्मेदार रही हैं. चाटुकारों ने उन्हें देश का पर्याय बताना शुरू कर दिया. नौबत इंदिरा इज इंडिया तक पहुंच गईं. आज कांग्रेस की क्या स्थिति है ? सबके सामने है.




मोदी जी ने भी बाजपेई युग और राममन्दिर आंदोलन में मुखर और सक्रिय नेताओं जिनसे चुनौती मिलने की लेशमात्र भी सम्भावना थी, को होशियारी और रणनीतिक कौशल दिखाते हुए निबटा दिया है. आज भाजपा “मोदी युग” में अपने यौवन की अंगड़ाई ले रही है. आज मोदी लोक सभा की सभी 543 सीटों पर अपनी और सहयोगी पार्टियों के साझा प्रत्याशी हैं. मोदी सरकार की वापसी के प्रचार की आंधी में किसी के पाऊं जमीन पर मजबूती के साथ जमें नजर नहीं आ रहे हैं.

वर्ष 2019 के चुनावों में भाजपा अपने पांच साल की उपलब्धियों के बल पर वोट नहीं मांग रही. अगले पांच सालों में देश पर मण्डराने वाले खतरों का भूत हर मतदाता के सर पर इस कदर सवार है, मानो देश वास्तव में युद्ध के मोर्चे पर खड़ा है. पूरे देश को युद्धोन्माद की मानसिकता ने जकड़ लिया है. कल्पना को वास्तविकता से ज्यादा वास्तविक बना दिया गया है. देश के सम्पूर्ण जनमानस में इस धारणा ने मजबूती से पैंठ बना ली है कि  युद्ध रणकौशल जो सेना के सभी अंगों को  संचालित और नियंत्रित कर सके, ऐसा आधुनिक “सिकन्दर” देश में यदि कोई है तो वह मोदी ही है.

वर्ष 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े कर एक नए देश को विश्व के मानचित्र पर उभारने वाली इंदिरा को तत्कालीन विपक्षी नेता अटल बिहारी बाजपाई द्वारा दिया गया “दुर्गा” का खिताब भी मानो मोटी धूल की पर्त की पीछे छुप गया है.

तेईस दिन बाद देश के मतदाताओं का फैसला सब के सामने आ जायेगा कि वह मोदी को सिकन्दर मान सत्ता की कमान बिना किसी किंतु-परन्तु के मोदी को सौंपती है, या कुछ किंतु-परन्तुओं को उनके सामने खड़ा करती है.




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