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शाहीन बाग : फासिस्टों के सरगना इस समय बदहवास है

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शाहीन बाग : फासिस्टों के सरगना इस समय बदहवास है

छात्रों के बाद अब स्त्रियां और आम अवाम की जुबान पर नारा है: ‘अत्याचार से आजादी’, साम्प्रदायिकता से आजादी’, ‘जोरो-जुल्म से आजादी’, ‘पूंजीवाद से आजादी’, … ! तब कनफटा गुंडा दैत्यनाथ उर्फ अन्याय सिंह बिष्ठा कह रहा है कि आजादी के नारे लगाने वालों पर देशद्रोह के केस ठोंक देगा. उधर तड़ीपार अमिट स्याह कल दोनों हाथ उठाकर चुनौती दे रहा था कि सीएए वापस नहीं होगा, जो चाहे कर लो !

इन धमकियों और चुनौतियों के पीछे की सच्चाई यह है कि फासिस्टों के सरगना इस समय बदहवास है, उनकी पुंगी बज रही है. डरे हुए फासिस्ट बेशक जुल्म का कहर बरपाया करते हैं, पर जनता जब जाग चुकी होती है तो उन्हें उनकी हर कार्रवाई का तुर्की-ब-तुर्की जवाब मिलता है. लोग अब ज्यादा से ज्यादा अभय होते जा रहे हैं. सत्ता के खूनी तंत्र का भय तिरोहित होता जा रहा है. आने वाले दिनों में फासिस्ट जोरो-जुल्म का जो नंगा नाच सड़कों पर करने वाले हैं, उसका मुकाबला कैसे किया जा सकता है ?

पहली बात यह कि न सिर्फ देश में हजारों शाहीन बाग बनाने होंगे, बल्कि उन्हें टिकाऊ और दीर्घजीवी बनाना होगा. सड़कों और सार्वजनिक स्थानों पर बैठे परिवारों के लम्बे समय तक बैठने का मुकम्मल इंतजाम करना होगा. इंतजामिया कमेटियां और स्वयंसेवक दस्ते बनाने होंगे. सड़कों पर चैराहों-मैदानों पर अस्थायी बस्तियां बसा देनी चाहिए और भंडारे, पानी, अस्थायी शौचालय आदि की सुविधा जन-सहयोग से तैयार की जानी चाहिए. किसी भी तरह से एक भी बस्ती पुलिस-दमन से उजड़ने न पाए, इसकी पूरी कोशिश होनी चाहिए.

शाहीन बाग की ही तरह कलाकारों-साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों की टोलियां लगातार इन सत्याग्रह-स्थलों पर आते रहनी चाहिए. सभी धरना-स्थलों पर डाक्टरी सुविधा का इंतजाम होना चाहिए और वहां मौजूद छोटे बच्चों को पढ़ाने-लिखाने का काम भी स्वयंसेवकों को करना चाहिए.

छात्रों-युवाओं को इस संघर्ष में विशेष भूमिका निभानी है, जो वे निभा भी रहे हैं. उन्हें अपना एक सत्र देश की जनता की मुक्ति के लिए कुर्बान करना चाहिए और इस वर्ष की परीक्षाओं का बहिष्कार करना चाहिए. उन्हें अपनी पूरी ताकत झोंककर शाहीन बाग जैसे संघर्षों के साथ खड़ा होना होगा और प्रचार दस्ते बनाकर बस्ती-बस्ती जाना होगा. कुछ-कुछ अंतराल पर वैसी रैलियां लगातार होनी चाहिए और मार्च निकालने चाहिए जैसा इन दिनों हो रहा है.

एक विशेष बात यह है कि तमाम बुर्जुआ पार्टियां इस सैलाब से किनारे बैठी हैं. इसमें बहना और नेतृत्व हड़पना उनके बूते की बात ही नहीं है. अगर सूझ-बूझ से काम लिया जाए तो ऐसे स्वतःस्फूर्त जन-उभारों को नयी क्रांतिकारी शक्तियों के उद्भव और प्रशिक्षण का केंद्र बनाया जा सकता है. अप्रैल से NRC के पहले कदम के तौर पर NPR की शुरुआत हो रही है. इसके व्यापक बहिष्कार के लिए सघन और व्यापक जन-अभियान चलाना होगा.

धरना-स्थलों और जुलूसों पर ज्यादा से ज्यादा वीडियो-रिकॉर्डिंग की तैयारी रहनी चाहिए ताकि पुलिसिया जुल्म को जल्दी से जल्दी वायरल किया जा सके. पुलिस वाले, थानों-हवालातों में, मोबाइल आदि छीन लेते हैं. वहां लोगों पर जो जुल्म होते हैं और पुलिस वाले जिस तरह गालियों की बौछार करते हैं, उन काली करतूतों को रिकॉर्ड करके लोगों में फैलाने के लिए खुफिया कैमरे का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों से हुई बातचीत जरूर रिकॉर्ड की जानी चाहिए ताकि उनका असली चेहरा लोगों के सामने नंगा किया जा सके. सामान्य और सस्ते खुफिया कैमरे करोलबाग के गफ्फार मार्किट जैसी जगहों पर आसानी से मिल जाते हैं.

एक और जरूरी बात ! धरना-स्थलों और रैलियों-जुलूसों में जहां कहीं भी गोदी मीडिया वाले दिखाई पड़ें तो उन्हें नारे लगाकर भगा देना होगा. गोदी मीडिया के जन-बहिष्कार को ज्यादा से ज्यादा प्रभावी बनाना होगा ! इस मुहिम में सक्रिय साथियों को विचारार्थ मैं एक और सुझाव देना चाहती हूं. NO CAA-NO NPR-NO NRC के नारे के साथ हमें NO EVM भी अवश्य जोड़ देना चाहिए.

अंत में एक बेहद जरूरी बात. बेशक ऐसा जन-उभार फासिस्टों को कुछ पीछे हटाने के लिए मजबूर कर सकता है. पर हमें किसी मुगालते में नहीं जीना चाहिए. फासिज्म के खिलाफ निर्णायक लड़ाई, फासिज्म को नेस्तनाबूद करने की लड़ाई एक लम्बी लड़ाई होगी. सत्ताच्युत होकर भी फासिस्ट आज की पूंजीवादी व्यवस्था में, समाज में बने रहेंगे और समय-समय पर खूनी उत्पात मचाते रहेंगे. फासिज्म-विरोधी संघर्ष पूंजीवाद-विरोधी संघर्ष की ही एक कड़ी है.

  • कविता कृष्णापल्लवी

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ROHIT SHARMA

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