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भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का शुरुआती दौर, सर्वहारा आंदोलन और भगत सिंह

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भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का शुरुआती दौर, सर्वहारा आंदोलन और भगत सिंह

रूस की सर्वहारा क्रांति के प्रभाव में बम्बई, लाहौर, कलकत्ता व मद्रास में कम्युनिस्ट ग्रुपों का गठन हुआ. बम्बई में डांगे, घाटे, जोगलेकर व मिराजकर प्रमुख नेता थे. कलकत्ता में मुजफ्फर अहमद, राधा मोहन गोकलजी, अब्दुल रज्जाक खान प्रमुख नेता थे. लाहौर में अब्दुल माजिद हसन व रामचंदर प्रमुख नेता थे तथा मद्रास में एस. चेटियार तथा कृष्णास्वामी आयंगर प्रमुख नेता थे. ये कम्युनिस्ट ग्रुप राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय थे. 1923 में मास्को से लौटने पर शौकत उस्मानी को कानपुर में गिरफ्तार किया गया तथा कुछ अन्य नेताओं को कलकत्ता व लाहौर से गिरफ्तार कर मार्च 1924 में कानुपर षड्यंत्र केस बनाया गया. ब्रिटिश सरकार कम्युनिस्टों का दमन करना चाहती थी परन्तु इस गिरफ्तारी ने कई शहरों में कार्यरत कम्युनिस्ट नेताओं को साथ लाया. सत्यभक्त तथा प्रसिद्ध उदू‍र् कवि हसरत मोहानी ने गिरफ्तार नेताओं की कानूनी मदद की. इस दौर में विभिन्न संगठनों के बीच समन्वय कायम हुआ.




का. सत्यभक्त ने 1925 में कानपुर में पहला कम्युनिस्ट सम्मेलन आयोजित किया. सत्यभक्त बोल्शेविक क्रांति से प्रभावित थे, परन्तु उनकी विचारधारात्मक समझ भ्रमित तथा मार्क्सवाद का अध्ययन कमजोर था. वह राष्ट्रीय कम्युनिस्ट पार्टी स्थापित करना चाहते थे. लाहौर, बम्बई, कलकत्ता व मद्रास के कम्युनिस्ट ग्रुपों के प्रतिनि‌धियों ने इस सम्मेलन में भाग लिया. सम्मेलन ने पार्टी कार्यक्रम तथा संविधान पारित किया तथा 15 सदस्यीय कार्यकारिणी का चुनाव किया.
पार्टी की विदेश ब्यूरो ने केंद्रीय कमेटी को एक पत्र लिखकर कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण की दिशा इंगित की. हमें एक जन पार्टी का निर्माण करना चाहिए जो कानूनी तौर पर काम करे. यह कम्युनिस्ट नाम के बिना कम्युनिस्ट पार्टी हो. यदि आप सहमत हों तो पार्टी का नाम बदल देना चाहिए. (सी.पी.आई. के इतिहास के दस्तावेज, ग्रन्थ 3-ए, पृष्ठ 163). इस प्रस्ताव में मजदूर -किसान पार्टी बनाने का सुझाव था. शुरू में बम्बई, बंगाल, पंजाब व दिल्ली में ऐसी पार्टियों का गठन हुआ तथा 1928 में कलकत्ता में अखिल भारतीय किसान-मजदूर पार्टी की घोषणा की गई. इसने राष्ट्रीय आन्दोलन में क्रांतिकारी भूमिका निभाने तथा मजदूर-किसानों को संगठित करने के कार्य लिये.

कुछ शुरुआती सफलताओं के साथ ही सरकार ने देश भर में पार्टी के सक्रिय नेताओं को मेरठ षड्यंत्र केस में गिरफ्तार कर लिया. 19 दिसम्बर, 1930 में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के लिए एक संघर्ष के कार्यक्रम के मसविदे की घोषणा इंप्रैकोर (कोमिंटर्न का न्यूजलेटर) में की गई, परन्तु इस आधार पर पार्टी के निर्माण के स्थान पर मतभेदों और टूट की प्रक्रिया सामने आई. कोमिंटर्न ने संबंधन पर अस्थायी रोक लगा दी. 16 जुलाई, 1933 को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने सी.पी.आई. को पत्र में लिखा, ‘सी.पी.आई. के इतिहास में मामूली बातों पर मतभेदों व टूट के दुःखद अध्यायों का अंत होना चाहिए तथा एक मजबूत व एकताबद्ध कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण का पृष्ठ शुरू करना चाहिए’ (वही, पृष्ठ 39).




उस समय भारत के कम्युनिस्टों में मुख्यतः तीन धारायें थीं. एक, शिक्षित प्रवासी भारतीयों की, जिन्हें सोवियत क्रांति व समाजवादी साहित्य के स्रोत उपलब्ध थे. उनके पास मार्क्सवाद-लेनिनवाद के अध्ययन के अवसर थे तथा वे यूरोप की कम्युनिस्ट पार्टी व कोमिंटर्न से संबद्ध थे. एम.एन. रॉय, रजनी पाम दत्त व अ‌धिकारी इस धारा में आते हैं जिनकी विचारधारात्मक जानकारी अ‌धिक थी तथा जिनके तर्क पैने व तथ्यपूर्ण थे.

दूसरी धारा में हिजराईट कम्युनिस्ट थे जिनकी राजनैतिक शिक्षा कम थी. पर, वे लड़ाकू क्षमता से ओतप्रोत थे तथा क्रांति के लिए भारत लौटे थे. बम्बई, कलकत्ता, लाहौर व मद्रास के कम्युनिस्ट इस श्रेणी में शामिल रखे गये हैं क्योंकि ये भी रूस की सर्वहारा क्रांति से प्रभावित थे तथा इन्होंने अपना कार्य मजदूर व किसानों को संगठित करने के जनांदोलनों से शुरू किया था. भारत में उपलब्ध मार्क्सवादी-लेनिनवादी साहित्य तक उनकी पहुंच थी तथा कोमिंटर्न से संबद्ध थे. एन.एन. रॉय, रजनी पाम दत्त के भी इस धारा से संबंध थे. साथ ही, ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी नेता स्प्रेट व ब्रेडले भी उनकी सहायता करते थे. ये भी मेरठ षड्यंत्र केस में गिरफ्तार हुए थे.




तीसरा धारा उन लोगों की है जिन्होंने अपना जीवन क्रांति के रूप में शुरू किया था. हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएसन (ीतं) और ग़दर पार्टी के कार्यकर्ता इस श्रेणी में आते हैं. गदर पार्टी से जुड़े वे किसान थे जो यहां परेशानी के कारण उत्तरी अमेरिका गये थे तथा वहां के राजनीतिक वातावरण व लाला हरदयाल की शिक्षाओं से प्रेरित होकर स्वतंत्रता के अभिलाषी थे. वे संविधानवादियों के अनुरोधों के आग्रहों से स्वतंत्र थे तथा ताकत के जरिये देश को स्वतंत्र कराना चाहते थे. उनके सामने 1857 के युद्ध का मॉडल था इसलिए वे फौज के भीतर से विद्रोह संगठित करना चाहते थे. पंजाब में फौज में विद्रोह संगठित करना इस योजना का एक हिस्सा था. दूसरा हिस्सा लड़ाकुओं का जत्था तैयार करना था, जो कश्मीर को आजाद कर तथा पंजाब की विद्रोही सेना से समन्वय कर पंजाब को जीत कर देश के बाकी हिस्से की ओर बढ़े. यह योजना 1857 के युद्ध से प्रेरित थी. इसी समय रूस में सर्वहारा क्रांति हुई. बाबा भगत सिंह बिल्गा के अनुसार रूस में क्रांति तक गदर पार्टी फ्रांसीसी क्रांति के सिद्धांतों स्वतंत्रता, समानता व भाईचारा से प्रेरणा लेती थी. बोल्शेविकों की सफलताओं ने गदर पार्टी पर मजबूत प्रभाव डाला. वे आगे लिखते हैं कि जेलों में गदर पार्टी कार्यकर्ता समाजवादियों व कम्युनिस्टों के सम्पर्क में आये तथा मार्क्सवादी अध्ययन का उन्हें अवसर मिला. (गदर आन्दोलन के कुछ अनखुले पे, पृष्ठ 130, 132).




बाबा बिल्गा के अनुसार भाई संतोख सिंह तथा भाई रतन सिंह को मास्को भेजा गया तथा उनकी रिपोर्ट के आधार पर आगे नीति तय करने का निर्णय लिया गया (वही). मास्को से लौटने के बाद भाई संतोख सिंह ने एक गुप्त बैठक का आयोजन किया जिसमें कीर्ति नाम से एक अखबार के प्रकाशन का निर्णय लिया गया, जिसका पहला अंक फरवरी, 1926 में प्रकाशित हुआ. यह पंजाब में नये उभर रहे कम्युनिस्ट आंदोलन का अघोषित मुखपत्र था. भगत सिंह व सोहन सिंह जोश इस पत्र से संबद्ध थे. इस तरह गदर पार्टी ने कम्युनिस्ट आन्दोलन की तरफ मोड़ लिया. कीर्ति के प्रकाशकों के खिलाफ दर्ज एक केस में कहा गया कि ‘गदर पार्टी, जो क्रांतिकारी राष्ट्रवादी पार्टी के रूप में अस्तित्व में आई तथा युद्ध के वर्षों में सशस्त्र संघर्ष के जरिये आजादी हासिल करने का उद्देश्य रखती थी, 1920 के बाद कम्युनिस्ट नेतृत्व में कार्यरत् आन्दोलन बन गयी. (गृह विभाग, राजनैतिक, फाइल न. 235/28)

अतः इस धारा में एक और वे ताकतें शामिल थीं जिन्होंने अपने-आप को क्रांतिकारी राष्ट्रवादी से कम्युनिस्ट में बदल लिया था तथा साथ ही भगत सिंह व हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन. भी इस धारा के हिस्सा थे. ये सभी जोशीले नौजवान थे जो क्रांतिकारी भावनाओं व कुर्बानी के जज्बे से लैस थे. असहयोग आंदोलन में कुछ समय हिस्सेदारी के बाद ये गांधीवादी नेतृत्व से विभ्रमित हो गये तथा इससे विमुख होकर वे क्रांतिकारी रास्ते की ओर बढ़े. वे सशस्त्र ताकत से ब्रिटिश ताकत को उखाड़ फेंकने के लिए प्रयासरत थे. ये अपने अनुभव से सीखते हुए तथा कम्युनिस्ट साहित्य के अध्ययन के साथ कम्युनिस्ट विचारधारा के अ‌धिका‌धिक साथ आते गये.




उस समय भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में समाजवादी क्रांति के चरणों के सिद्धांत पर स्पष्टता नहीं थी परन्तु, कोमिंटर्न इस सवाल पर काफी स्पष्ट थी. भारत और चीन की स्थितियों पर चर्चा के बाद कोमिंटर्न की छठी कांग्रेस (जुलाई-अगस्त, 1928) की राय थी, … यहां सर्वहारा की तानाशाही में संक्रमण की तैयारी चरणों में तथा बुर्जुआ जनवादी क्रांति को समाजवादी क्रांति में विकसित करके की जायेगी. ऐसे देशों में राजसत्ता सर्वहारा की तानाशाही न होकर मजदूरों व किसानों की जनवादी तानाशाही होगी जो साम्राज्यवाद व इजारेदारों को सभी रियायतें खत्म करेगी, कृषि क्रांति को पूरा करेगी. उपनिवेशों के लिए यही मूल नारा है. (इंपैकोर, ग्रंथ 8, न. 80, पृष्ठ 1513-18, अंग्रेजी से अनुदित)

परन्तु कोमिंटर्न की छठी कांग्रेस द्वारा पारित दस्तावेजों के उपलब्ध होने के बावजूद सी.पी.आई. इस पर स्पष्ट नहीं थी. जहां कोमिंटर्न सर्वहारा व किसानों के जनवादी अ‌धिनायकत्व का नारा दे रही थी, वहीं सी.पी.आई. मजदूर वर्ग को आह्नान नामक दस्तावेज में मजदूरों का राजसत्ता दखल करने तथा रूस की तरह सर्वहारा स्थापित करने का आह्नान कर रही थी. (सी.पी.आई. के इतिहास के दस्तावेज, ग्रंथ 3-सी, पृ. 790)




निश्चित ही भगत सिंह क्रांति को दो चरणों राष्ट्रीय जनवादी क्रांति व समाजवादी क्रांति में बांटने के पक्षधर नहीं थे. उनका विचार सीधे समाजवादी क्रांति हासिल करने का था इसलिए उनका नारा मानव द्वारा मानव के शोषण को समाप्त करने का मूल नारा बन गया. क्रांतिकारी पार्टी के कार्यक्रम के मसविदे में जनवादी क्रांति के कार्यभारों के साथ ही बहुत से बिंदु समाजवादी क्रांति के कार्यभार हैं. इस मसविदे में जमींदारी का खात्मा तथा बेहतर व सामूहिक खेती संगठित करने के लिए क्रांतिकारी राज्य द्वारा जमीन का राष्ट्रीयकरण, उद्योगों का राष्ट्रीयकरण तथा देश में उद्योगों की स्थापना साथ-साथ रखे गये. शायद यह उनकी इस मान्यता का परिणाम था कि राष्ट्रीय जनवादी क्रांति का मकसद अमेरिका जैसे राज्य की स्थापना है. उन्होंने प्रश्न किया, यदि आप कहते हैं कि आप राष्ट्रीय क्रांति करना चाहते हैं जिसका उद्देश्य अमेरिका जैसे भारतीय गणतंत्र की स्थापना है, तो मेरा सवाल है कि इस क्रांति के लिए आप किन ताकतों पर निर्भर करेंगे. (मसविदा … ) भगत सिंह अमेरिकी गणतंत्र के मुकाबले सोवियत गणतंत्र को तरजीह देते थे. क्रांति का चरण उनके लिए इतना मौलिक सवाल नहीं था. उन्होंने लिखा, चाहे क्रांति जनवादी हो या समाजवादी, हम मजदूर तथा किसान ही वे ताकत हैं, जिन पर हम निर्भर कर सकते हैं.




कम्युनिस्ट आंदोलन का अनुभव दिखाता है कि क्रांतिकारी कार्यक्रम पारित करना काफी नहीं होता. इस कार्यक्रम पर अमल करने के लिए निश्चित क्रांतिकारी दिशा आवश्यक होती है. गैर-क्रांतिकारी दिशा क्रांतिकारी कार्यक्रम को भी सुधारवाद तथा संशोधनवाद की दलदल में धकेल देती है. इस सवाल पर भगत सिंह व उनके साथियों के विचार अ‌धिक परिपक्व थे. विदेश ब्यूरो द्वारा सी.पी.आई. को लिखे गये पत्र में स्पष्ट कहा गया था, हमें ऐसी जन पार्टी की जरूरत है जो खुले व कानूनी रूप से काम कर सके. 1925 में कानपुर में आयोजित पहला कम्युनिस्ट सम्मेलन भी खुले रूप से किया गया. वहां चुनी केन्द्रीय कार्यकारिणी भी खुले तौर पर काम कर रही थी. जब ब्रिटिश शासकों ने पार्टी पर हमला करने का फैसला किया तो मेरठ षड्यंत्र केस में लगभग पूरा नेतृत्व गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे डाल दिया गया, जिससे पार्टी बिखर गयी.

इसके विपरीत, भगत सिंह तथा उनके साथी खुले व गुप्त का समन्वय करने के पक्षधर थे. वे खुले काम की संभावनाओं का फायदा उठाने के पक्ष में थे तथा साथ ही गुप्त काम के पक्षधर थे. उनके अनुसार, यह जरूरी नहीं है कि पार्टी गुप्त ढंग से ही काम करे, बल्कि उसे खुले रूप से काम करना चाहिए. हमें स्वेच्छा से जेल जाने की नीति को भी छोड़ देना चाहिए. इस तरह बहुत-से कार्यकर्ता भूमिगत जीवन जी सकेंगे. परन्तु उन्हें पूरे उत्साह से काम करना चाहिए. इस ग्रुप से, सभी तरह की स्थितियों को संभालने में सक्षम नेताओं का विकास होगा. (भगत सिंह व उनके साथी, रचनाएं, पृ. 357-358). अतः हम देख सकते हैं कि भगत सिंह और उनके साथी ऐसी पार्टी के बारे में सोच रहे थे जिसे खुले व गुप्त ढांचों का निर्माण करना चाहिए तथा उनका इस्तेमाल करना चाहिए.




विदेश ब्यूरो के पत्र में कम्युनिस्ट पार्टी का नाम बदलकर मजदूर-किसान पार्टी का नाम रखने का प्रस्ताव दिया गया था. इसके बाद पहले प्रांतीय स्तर पर तथा बाद में अखिल भारतीय स्तर पर किसान-मजदूर पार्टी का गठन किया गया. इस पार्टी के बारे में कम्युनिस्ट नेता सोहन सिंह जोश ने लिखा था, यह कम्युनिस्ट पार्टी नहीं थी. इसके विपरीत भगत सिंह तथा उनके साथियों के अनुसार, पार्टी का नाम कम्युनिस्ट पार्टी होना चाहिए. राजनीतिक कार्यकर्ताओं की यह पार्टी, जिसका कड़ा अनुशासन होगा, अन्य सभी संघर्षों का संचालन करेगी. यह मजदूरों व किसानों की अन्य पार्टियों का निदेशन भी करेगी. ऐसी पार्टी की रीढ़ पेशेवर क्रांतिकारियों की होनी चाहिए, जैसा कि लेनिन ने बताया था. भगत सिंह ने लिखा, हमें बहुत-से नेता मिलते हैं जो भाषण देने के लिए शाम को कुछ समय निकाल सकते हैं. ये हमारे किसी काम के नहीं हैं. … ऐसे कार्यकर्ता जितनी अ‌धिक संख्या में पार्टी में संगठित होंगे, सफलता के अवसर उतने ही अ‌धिक होंगे. (वही) दूसरी ओर, 1927 में सी.पी.आई. की केन्द्रीय कार्यकारिणी द्वारा पारित संविधान में ऐसी मान्यता नहीं मिलती. इससे पता चलता है कि पार्टी निर्माण के बारे में भगत सिंह की धारणा अपेक्षाकृत अ‌धिक परिपक्व तथा सही थी.

दूसरा महत्वपूर्ण सवाल क्रांति के रास्ते का है. क्रांति के दो रास्ते रूसी तथा चीनी रास्ते तब नहीं थे. उस समय सवाल था कि क्रांति शांतिपूर्ण होगी या सशस्त्र. मार्क्स ने कहा था, मरणशील शासक वर्ग राजसत्ता स्वेच्छा से नहीं त्यागते. वे सभी तरह के हथियारों का इस्तेमाल करते हैं इसलिए हथियारों का इस्तेमाल जरूरी हो जाता है. उस समय इस सवाल पर सी.पी.आई. के विचार स्पष्ट नहीं थे. इस सवाल पर उस समय के दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं. तत्कालीन बम्बई की मजदूर-किसान पार्टी ने ऑल इण्डिया कांग्रेस कमेटी के लिए एक आह्नान जारी किया था जिसमें कहा गया था, नागरिक अवज्ञा आंदोलन में अपने विश्वास को दोहराती है, जिसका अर्थ है कि गुलामी की स्थिति से भारत की जनता की मुक्ति के लिए प्रत्यक्ष कार्रवाई एकमात्र हथियार है. (सी.पी.आई. के इतिहास के दस्तावेज, ग्रंथ 3-बी, पृ. 169) मजदूर-किसान पार्टी के कलकत्ता में हुए अखिल भारतीय सम्मेलन में अहिंसा को कार्यनीतिक दिशा अपनाते हुए कहा गया था, मजदूर-किसान पार्टी भारत की परिस्थितियों में आम कार्यनीति के रूप में अहिंसा की उपयोगिता से इंकार नहीं करती. एम.एन. रॉय के लेखों में हड़ताल व आम हड़ताल का जिक्र है.




इस सवाल पर भगत सिंह तथा उनके साथियों के विचार अ‌धिक स्पष्ट थे. जन संघर्षों का संचालन करते हुए उन्होंने सशस्त्र संघर्ष की तैयारियों की उपेक्षा नहीं की. उन्होंने लिखा, इसके बावजूद, एक सैन्य विभाग का गठन करना जरूरी है. इसका व्यापक महत्व है. कभी इसकी बेहद जरूरत होती है. तब अगर ऐसे ग्रुप के गठन की शुरुआत की जाये, तो हम इसका गठन नहीं कर सकते. (रचनाएं, पृ. 358) ऐसा नहीं है कि भगत सिंह ने इस सूत्र का इस्तेमाल अपने गर्म-मिजाज साथियों को संतुष्ट करने के लिए किया, जैसा कि भगवान सिंह जोश ने अपनी पुस्तक पंजाब के कम्युनिस्ट आंदोलन में निष्कर्ष निकाला है. इसके विपरीत, उनके पास इस काम की विस्तृत योजना थी जैसा कि उन्होंने कहा, एक्शन कमेटी : इसकी बनावट, एक गुप्त कमेटी, कार्य के लिए हथियार जमा करना, विद्रोह के लिए प्रशिक्षण. ग्रुप (ए) : युवा दुश्मन के बारे में सूचना एकत्र करना, स्थानीय सैन्य सर्वे. ग्रुप (बी) : विशेषज्ञ : हथियार जमा करना, सैन्य प्रशिक्षण. (वही, पृ. 367) अतः हम देख सकते हैं कि भगत सिंह व साथियों के लिए सशस्त्र संघर्ष कोई अमूर्त संभावना नहीं थी, बल्कि उन्होंने इसे अपरिहार्य कार्य के रूप में लिया तथा साथ-साथ इसकी तैयारियों पर जोर दिया. सभवतः यही कारण है कि सोहन सिंह जोश जैसे सुधारवादी जन दिशा के मानने वाले भगत सिंह के विचारों से आतंकवाद का ठप्पा हटाने को इच्छुक नहीं रहे. सोहन सिंह जोश के लिए हथियारों का इस्तेमाल ही शायद आतंकवाद है.




ऊपर जिन विचारों को इंगित किया गया है उससे स्पष्ट है कि भगत सिंह एक गतिशील तथा विकासमान कम्युनिस्ट थे. उन्हें अभी बहुत-से पक्षों, क्रांति के चरण तथा अन्य मुद्दों पर परिपक्वता तथा स्पष्टता हासिल करनी थी. तब भी भगत सिंह तथा उनके साथी अनेक बिंदुओं पर कम्युनिस्ट पार्टी के समकालीन नेताओं के मुकाबले अ‌धिक स्पष्ट थे जो अपेक्षाकृत अ‌धिक अनुकूल हालतों में काम कर रहे थे. उनकी पहुंच अ‌धिक मौलिक थी.

आज, कम्युनिस्ट आंदोलन के समक्ष बहुत-से सवाल हैं. क्या भारत स्वतंत्र है ? क्या तीसरी दुनिया के देशों में साम्राज्यवाद विकास का प्रोत्साहक है ? क्या केवल खुला या गुप्त कार्य हो, या दोनों के बीच समन्वय जरूरी है ? क्या सशस्त्र क्रांति जरूरी है? इन सवालों पर कम्युनिस्टों तथा अपने-आप को कम्युनिस्ट समझने वालों में काफी भ्रम की स्थिति है. ऐसा देखते हुए इन विषयों पर भगत सिंह की समझ आश्चर्य पैदा करती है.




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