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केन्द्रीय माओवादी नेता ‘किसान’ का साक्षात्कार

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भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के बाद से ही देश भर में क्रांतिकारी आन्दोलन ने सुव्यवस्थित स्वरूप ग्रहण किया है. लाखों की तादाद में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में देश के बहादुर बेटों ने अपनी शहादतें दी हैं. परन्तु, भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन विभिन्न चरणों से गुजरते हुए हजारों टुकड़ों में बंटती चली गई. बहुत के टुकड़ों ने साम्राज्यवादियों और दलाल पूंजीपतियों के चरणों में आत्मसमर्पण कर दिया या पतित हो गया. परन्तु कुछेक घड़ों ने देश में क्रांति की मशाल जलाये रखा और आज भी देश की जनता को एकजुट करते हुए संघर्ष को न केवल तेज ही कर रहा है वरन्, लड़ते और शहादतों को गले लगाते हुए देश भर में एक विशाल आधार इलाका भी स्थापित कर लिया है, जिसे साम्राज्यवादी और दलाल पूंजीपतियों के तलबे चाटने वाली भारत सरकार पूरी ताकत झोंकने के बाद भी खत्म नहीं कर पायी.

ऐसी ही अनेक घड़ों ने एकजुट होकर 2004 ई. में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, माओवादी का गठन कर देश में क्रांतिकारी जनता का नेतृत्व कर रही है. इसे संक्षेप में सीपीआई (माओवादी) कहा जाता है, जिस पर भारत सरकार ने अनेक वर्षों से प्रतिबंध लगा रखा है. सीपीआई-माओवादी ने क्रांतिकारी जनता का नेतृत्व करने के लिए देश को अनेक रिजनल ब्यूरो में बांट रखा है. इसी में से एक रिजनल ब्यूरो, पूर्वी रिजनल ब्यूरो के सचिव ‘किसान’ ने पत्रकारों के अनेक सवालों का लिखित जवाब एक पत्रिका को दिया है. प्रश्नोत्तरी के शक्ल में ली गई यह साक्षात्कार देश में सीपीआई-माओवादी के नेतृत्व में चल रही क्रांतिकारी आन्दोलन के बारे में महत्वपूर्ण सूचना देश की जनता को देती है, जिसको हम यहां अपने पाठकों के लिए हू-ब-हू प्रकाशित कर रहे हैं.

माओवादी नेता ‘किसान’ का साक्षात्कार

1. प्रश्नः बिहार-झारखण्ड में विगत 50 वर्षों के क्रांतिकारी संघर्षों के दौरान बिहार-झारखण्ड में सामाजिक विन्यास में किस प्रकार का बदलाव लाया है और जनता को क्या-क्या मिला है ?

उत्तरः आपके इस प्रश्न का उत्तर समग्रता के आधार पर देना है तो बहुत लम्बा इतिहास का वर्णन जैसा हो जाएगा क्योंकि पीछले 50 वर्षों के घमासान क्रांतिकारी वर्ग-संघर्ष तथा वर्ग युद्ध के जरिए तत्कालीन बिहार और साल 2000 में उससे अलग होकर झारखण्ड राज्य का गठन तक यानी बिहार-झारखण्ड में सामाजिक विन्यास में जो सकारात्मक बदलाव आए हैं, एक बात में कहने से वह अभूतपूर्व है, इसलिए खूब संक्षिप्त रूप से ही मैं दो-चार बातों का जिक्र
कर रहा हूं. वे हैं :

आप सबों को मालूम ही है कि भारत के विभिन्न पिछड़े हुए प्रांतों के अंदर तत्कालीन बिहार (और अभी का बिहार-झारखण्ड) शायद सबसे पिछड़ा हुआ प्रांतों की गिनती में आता है. यह भी आज स्पष्ट तौर पर जाहिर है कि बिहार एक जबरदस्त सामंतवाद का गढ़ रहा है और आज भी दुनिया हिला देने वाला क्रांतिकारी वर्ग-संघर्ष चलाए जाने के बाद भी सामंतों का दबदबा कुछ हद तक बरकरार ही है.

जाहिर-सी बात है कि हजारों सालों से भारतीय समाज पर हावी रहा सामंतवाद जड़ किस्म का जाति-आधारित सामंतवाद रहा है, जो ब्राह्मणवादी विचारधारा पर निर्मित हुआ था. आज भी निन्दनीय जाति व्यवस्था और जातिवाद, खासकर ब्राह्मणवादी जातिवाद भारतीय समाज की अर्द्ध-सामंती व्यवस्था की एक खास विशेषता है. घृणास्पद जाति व्यवस्था और जातिवाद, जिसे शासक वर्गों ने हजारों वर्षों तक जारी रखा है, सामाजिक उत्पीड़न व शोषण का एक विशिष्ट रूप है, जो देश की उत्पीड़ित जातियों को अपना शिकार बना रहा है. जातिवाद व्यक्ति के आत्म-सम्मान को कुचल देता है, उसके साथ नीच जैसा व्यवहार करता है और एक ऐसा सीढ़ीनुमा सामाजिक उच्च श्रेणीक्रम  खड़ा कर देता है जिसमें ऊपरी पायदान पर स्थित हर तबका अपने नीचेवालों को नीचा समझता है. छुआछूत की अमानवीय प्रथा अभी भी जारी है, यह सब ऐसा हथियार है जिससे भारतीय शासक वर्ग और साम्राज्यवादी दोनों द्वारा गरीबों की बहुसंख्या वर्ग उत्पीड़न के अलावा घोर जातिगत उत्पीड़न का भी शिकार है.




आज भी सामंती उत्पीड़न के खिलाफ और समाज में अपने बराबरी का दर्जा पाने के लिए सदियों पुराने उनके संघर्षों को निशाना बनाया जा रहा है और दलितों को शासक वर्ग और उनके राज्य-मशिनरी द्वारा संरक्षण प्राप्त सामंती तथा हिन्दुत्व की कट्टरतावादी शक्तियों के बर्बर आक्रमणें का शिकार होना पड़ रहा है. इसकी अभिव्यक्ति नरसंहारों तथा सामूहिक बलात्कारों में हो रही है.

उल्लिखित सारी बातों की स्पष्ट व्यावहारिक अभिव्यक्तियां कुछ वर्षों के पहले का बिहार में तो देखने को मिली थी. एक-दो सामंती शान या दबंगई की मिसाल पेश करने से समझने में सुविधा होगी. जैसे, एक समय में यानी कुछ वर्षों पहले तक का बिहार के मध्य-उत्तर-पूर्वी भाग में दो-तीन हजार एकड़ भूमि पर कब्जा जमाए बैठे हुए कुछ बड़ा जमीन्दारों का काफी व निरंकुश वर्चस्व जारी था. ये सामंत भूस्वामी लोग खासकर उच्च जाति के इने-गिने लोग ही होते हैं और उत्तरी बिहार के पूर्वी भाग में कुछ बड़ा-बड़ा मुसलमान जमींदार भी होते हैं. इन भूस्वामियों की दबंगगिरी इतने क्रूर थी कि वे लोग गरीबों व दलितों को, चाहे वे कितने ही उम्रदराज व्यक्ति हों, सभी को ‘रे’, ‘बे’ छोड़कर कभी पुकारते नहीं थे. ऐसा कि उच्च वर्ण के जमींदारों के छोटी उम्र के लड़का-लड़की भी गरीब व दलित घर के वृद्ध व्यक्ति को ‘रे’ कहकर ही सम्बोधन करते हैं. आम महिलाओं को, ऐसा कि मां-चाची की उम्र के महिलाओं को भी अपमानजनक ‘गे’ शब्द के जरिए ही पुकारा जाता था. गरीब-भूमिहीन तथा दलित घरों के महिलाओं के इज्जत के साथ खिलवाड़ करना तो पितृसत्ता वाला मौजूदा समाज में सामंतों का निरंकुश अधिकार जैसा बन गया है. ऐसा कि सामंतों के घर के लड़का लोगों के लिए भी किसी भी उम्र की महिला के साथ अश्लील हरकतें करना भी मामुली-सी बात जैसी है. किसी भी गरीब व दलित घर के किसी भी उम्र के व्यक्ति क्यों न हो वे साफ-सुथरा कपड़ा पहनकर जमींदारों के गांवों के अंदर से तो बिल्कुल नहीं, ऐसा कि गांव के बगल के रास्ते से भी नहीं जा सकता था. अगर कोई गया तो उसे सजा मिलनी निश्चित है. इसके अलावा मूंछ रखकर किसी गरीब-दलित को चलना-फिरना मानो महा-अपराध है और कड़ी से कड़ी सजा पाने का हकदार है. उच्च जाति के लोगों के सामने किसी दलित के लिए अपनी खटिया पर बैठना मानो भीषण अपराध है.

ऐसे अनेकों मिसाल के अंदर उपर में मात्र दो-चार प्रकार की ब्राह्मणीय जाति-आधारित समाज व्यवस्था की व्यावहारिक अभिव्यक्तियों का जिक्र किया गया है. आप तो मध्ययुगीन सामंती व्यवस्था की बात, पितृतांत्रिक आचार-आचरण की बात व क्रूर अत्याचार की बात को इतिहास में पढ़े होंगे. पर, आज अर्द्ध-औपनिवेशिक व अर्द्ध-सामंती भारतीय व्यवस्था होने पर भी उसके उल्लिखित क्रूर सामंती आचार-आचरणों की प्रचुर अभिव्यक्तियां देखने को मिलेगी.




अब, 1967 में ऐतिहासिक नक्सलबाड़ी सशस्त्र किसान विद्रोह की घटना के बाद पूरे भारत में जो हलचल पैदा हुई थी, तत्कालीन बिहार भी इससे अछूता नहीं रहा. कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के नेतृत्व में सामंतवाद के गढ़ के रूप में चिन्हित बिहार में भी दुनिया हिला देने वाली सामंतवाद विरोधी लड़ाई की शुरूआत हुई और क्रमशः उस लड़ाई का विकास व विस्तार होने लगा. इससे सामंती व्यवस्था की नींव हिल गयी. हजारों-हजार एकड़ जमीन के मालिक जमींदारों के निरंकुश शासन व्यवस्था के खिलाफ हजारों-हजार किसान जनता विद्रोह का बिगुल फूंक दिये. वे संगठित व हथियारबंद होकर ‘खुद की समस्या खुद हल करें’ की नीति अपनाकर लाखों एकड़ जमीन जब्त कर सामंती गढ़ की जड़ में जबरदस्त प्रहार किये. गांव-गांव व इलाके-इलाके में विभिन्न नामों से किसान जनता का संगठन तथा क्रांतिकारी किसान कमेटी का गठन होने लगा और स्थिति ऐसी हो गयी कि हकीकत में ये सभी किसान संगठन ही गांव इलाके की शासन-व्यवस्था का संचालन करने लगे. छोटी-मोटी समस्या सहित जनता के बीच के विभिन्न विवादों का निपटारा किसान संगठन के जरिए ही होने लगा. पुरानी सरकारी विचार-व्यवस्था यानी कोर्ट-कचहरी में नहीं जाकर लोग किसान कमेटी के पास इन्साफ के लिए आवेदन भेजने लगे. सच कहा जाए तो राजनीति, अर्थनीति, संस्कृति तथा सामाजिक जीवन के हर पहलू में एक क्रांतिकारी बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो गयी.

अब सामंती भूस्वामी लोगों को दबंग-भूमिका जारी रखना नामुमकिन हो गया, तब वे मजबूर होकर लड़ाकू भूमिहीन-गरीब-मेहनतकशों व दलितों को ‘रे’ ‘बे’, ‘गे’ कहकर पुकारना बंद कर दिया और बदले में ‘भाई’, ‘बाबू’, ‘नमस्ते’ आदि शब्दों का इस्तेमाल करने लगा. मां-बहनों को संबोधन करने की भाषा में भी बदलाव आ गया. हकीकत में, गांवों से भागकर ज्यादा से ज्यादा सामंती भूस्वामी निकटवर्ती व दूरवर्ती दोनों शहरों में जाकर बसने लगा.

उल्लिखित तमाम कारणों के फलस्वरूप सामाजिक विन्यास या समाज में वर्ग विन्यास में भी कुछ न कुछ बदलाव परिलक्षित हो रहा है. जैसे, 50 वर्षों के पहले की सामंती शोषण, जुल्म-अत्याचार सहित सामंती उत्पीड़न के सवाल पर कुछ मात्रत्मक परिवर्तन जरूर हुआ, मगर अभी भी वर्गों के बीच विभाजन मिटाने के सवाल पर बहुत कुछ करना बाकी ही है. जो कि एक महान सामाजिक क्रांति की सफलता के जरिए ही क्रमागत रूप से समाज में मौजूदा बरकरार वर्ग-विभाजन में बदलाव लाकर वर्गहीन समाज गठन की ओर आगे बढ़ा जा सकता है.




इस बिंदु पर हमें इस मूल बात को याद रखना होगा कि जहां-ही सामंतों के गढ़ों पर आघातस्वरूप जबरदस्त क्रांतिकारी किसान विद्रोह का सिलसिला शुरू हुआ और सामंती व्यवस्था की नींव हिल गयी, तो जमींदारों की निजी सेना जैसे ब्रह्मर्षि सेना, भूमि सेना, लोरिक सेना, सनलाईट सेना व रणवीर सेना द्वारा गरीब भूमिहीन व दलित गांवों पर हमला शुरू हुआ, गांवों को आग के हवाले कर देना और मनमौजी कत्लेआम चलने लगा और साथ ही साथ माथा के केश से लेकर पैर का नाखून तक आधुनिक अस्त्र-शस्त्र से लैस राज्यमशिनरी का प्रमुख अंग पुलिस-मिलिटरी उस विद्रोह को कुचल देने के उद्देश्य से खूंखार आक्रमण में उतर पड़े. जो आज तक न केवल जारी ही है, बल्कि उसे और तेज व आक्रामक बनाया गया है. क्रांतिकारी लड़ाईरत समूचे इलाके को पुलिसिया कैम्पों से भर दिया गया, यानी पूरे देहाती क्षेत्रें को पुलिस-छावनी में तब्दील कर दिया गया.

ऐसी आक्रामक स्थिति में चोट खाया हुआ सामंतों ने पुनः पुराना राजपाट को लौटा लाने का ख्वाब देखने लगा. कहीं-कहीं पुलिस बल की मदद से जनता द्वारा कब्जा की गयी जमीन पर पुनः अपना कब्जा जमाने का प्रयास जमींदारों ने चलाया. आज की ठोस परिस्थिति की विशेषता की बात करने से कहा जा सकता हैं कि यहां क्रांतिकारी संघर्ष प्रतिक्रांतिकारी संघर्ष के साथ लोहा ले रहा है. ऐसी स्थिति तबतक चलती रहेगी, जबतक भारत के कुछ हद तक विशाल क्षेत्रें को लेकर जनता का राजनीतिक शासन स्थापित न हो जाए. पर सच तो यह है कि अभी की स्थिति में कहीं-कहीं जनता की हुकूमत है भी और नहीं भी है जैसे सारे कुछ एक संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहा है. जब तक जनता के हाथ में एक शक्तिशाली जन-सेना नहीं रहेगी तथा लाल आधार इलाका नहीं रहेगा, तब तक संक्रमणकालीन दौर जारी रहेगा.

जहां तक झारखंड का सवाल है, यहां पर बिहार जैसे खूंखार सामंती भूस्वामिओं की संख्या तो गिने-चुने एक-दो ही है, पर बड़ा-बड़ा जोतदार, महाजन, सूदखोर, व्यापारी व ठेकेदारों का भारी शोषण जारी था. पिछले 50 वर्षों के दौरान यहां पर जो क्रांतिकारी संघर्ष चला आ रहा है, उसकी एक खास विशिष्टता यही है कि झारखंड में क्रांतिकारी वर्ग-संघर्ष के साथ झारखंडी राष्ट्रीयता का शोषण-मुक्ति का संघर्ष एक-दूसरे के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है, यानी दोनों के बीच ओतप्रोत संबंध है. यहां भी वर्ग दुश्मनों की जमीन और गैर-मजरूआ जमीन के विशाल हिस्से यानी हजारों एकड़ जमीन पर जनता का कब्जा हासिल है और जनता के पास जनसेना का मौजूदा स्वरूप पीएलजीए उपलब्ध है गांव-गांव व इलाके-इलाके में क्रांतिकारी किसान कमेटी तथा कुछ जगहों पर क्रांतिकारी जन कमेटी की हुकूमत जारी है. पर, पूरे झारखंड को पुलिस छावनी में बदल दिए जाने के बाद यहां भी सब कुछ है और नहीं भी है, जैसी सक्रंमणकालीन स्थिति चल रही है.




उपरोक्त सारे विवरणों से यह स्पष्ट उजागर होता है कि जनता के लिए आत्मसम्मान व आत्ममर्यादा बोध पहले की अपेक्षा बढ़ा है, जमीन पर कुछ हद तक कब्जा हो जाने से पहले की अपेक्षा आर्थिक स्थिति में थोड़ी बेहतरी आयी है, अपनी भाषा-शिक्षा व संस्कृति की अलग पहचान बनाए रखने में कुछ हद तक सफलता मिली है, कॉरपोरेट व दलाल नौकरशाही पूंजीपति के साथ अनगिनत एम-ओ-यू- को कार्यान्वायन न कर देने में कुछ हद तक सफलता मिली है, इत्यादि, इत्यादि. याद रखें कि ये सारे कुछ सापेक्ष या तुलनात्मक ही है. विदित है कि 2009 से लेकर 2017 तक ऑपरेशन ग्रीन हंट के तीन चरण पार कर अभी 2018 से मिशन-समाधान का खूंखार आक्रमण का मुकाबला जारी है.

सच कहा जाए तो पिछले 50 वर्षों के दौरान जनता पर निर्मम आर्थिक शोषण व बर्बर राजनीतिक उत्पीड़न में मात्रात्मक रूप से बहुत से बदलाव आए हैं. वर्गो के विन्यास में, शत्रु व मित्रों के बीच विभाजन रेखा खींचने में, मित्र शक्तियों के बीच एकताबद्ध होने की दिलचस्पी में, नई-जनवादी क्रांति के जरिए ही जनता की जनवादी व्यवस्था की स्थापना की चेतना में, वोट या चुनाव के रास्ते की धोखेबाजी को क्रमशः ज्यादा कर समझने में इत्यादि सारे कुछ में मात्रात्मक, पर सकारात्मक बदलाव आए हैं.

अब, अगले दौर की लड़ाई के जरिए ही यह तय होगा कि आखिरकार जनता जीतेगी अथवा दुश्मन की हुकूमत जारी रहेगी. अभी तक के अनुभव हमें यही सबक देता है कि अगर लड़ाई की लाइन-नीति, पद्धति व कार्यशैली ठीक रहेगी तथा वर्गीय एकता क्रमशः सुदृढ़ होती रहेगी तथा सारे कुछ का सटीक संचालन की कुंजी भाकपा (माओवादी) अगर और शक्तिशाली होगी व पीएलजीए मजबूत होगी और संयुक्त मोर्चा भी बन उठेगा, तो नई-जनवादी क्रांति में जनता की जीत निश्चित है. दुनिया में कोई भी ताकत नहीं है, जो इस गतिधारा को रोक सके.




2- प्रश्नः आदिवासी जनता के वर्ग विश्लेषण व पार्टी कार्यक्रम क्या है ?

उत्तरः आदिवासी समाज का वर्ग-विश्लेषण व पार्टी कार्यक्रम से जुड़ी हुई बातों को समझने के लिए इन निम्न बातों को समझना जरूरी है. वे बातें हैं –

आदिवासी जनता भारतीय आबादी के 8 प्रतिशत के करीब हैं. भारत की बाकी आबादी से इनकी आर्थिक तथा सामाजिक व्यवस्था और सांस्कृतिक वशिष्टताओं में अहम भिन्नताएं है. बहुत से आदिवासी समुदाय अपनी राष्ट्रीयता के रूप में विकसित होने की प्रक्रिया में हैं और इनकी भारी बहुसंख्या भारतीय समाज के सबसे दलित व उत्पीड़ित तबकों की हैं. आदिवासियों की विशाल बहुसंख्या को बिना कोई विकल्प उपलब्ध कराये लम्बे दिनों से भूमि और जीविका केदूसरे परम्परागत साधनों से वंचित कर दिया गया है. परम्परागत रूप से आदिवासियों के कब्जे में रह चुके पहाड़ व जंगल तथा जंगल की उपज और खनिज संसाधनों को साम्राज्यवादियों, दलाल नौकरशाह पूंजीपतियों, सामंती वर्गो, ठेकेदारों, सूदखोरों व महाजनों, बेईमान व्यापारियों, नौकरशाहों और दूसरे शोषकों, मुख्यतः बाहरी शोषकों ने जबरन हड़प लिया है. इसके चलते उनकी परम्परागत अर्थव्यवस्था बिखर गयी है. इनके क्षेत्रों में खुली और बंद खदानों, दूसरे उद्योगों और जलाशयों का निर्माण करते हुए इन आदिवासियों की जीवन-जीविका को तबाह कर दिया गया है. इसके अलावा ये सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से भी उपेक्षा का शिकार हुए हैं. यह तो हुआ पूरे भारत में आदिवासी जनता की ठोस स्थिति का विवरण.

अब, चूंकि आपका सवाल विशेष रूप से झारखण्ड के बारे में है, इसीलिए झारखण्ड की स्थिति पर थोड़ा विस्तृत चर्चा करने से उक्त सवाल का जवाब को स्पष्ट रूप से समझने में सुविधा होगी. दुश्मन वर्ग यानी साम्राज्यवाद, सामंतवाद या बड़ा-बड़ा जमींदार-जोतदार, महाजन, सूदखोर, व्यापारी, ठेकेदार, जो झारखण्ड इलाके तथा देश की सम्पत्ति को लूटकर और जनता का खून चूसकर धन-दौलत व सम्पत्ति का पहाड़ बनाते जा रहा है, उनकी आर्थिक ताकत की बुनियाद कहां है, उनकी शोषण-व्यवस्था की मूल आर्थिक बुनियाद क्या है- यह जानना जरूरी है.




जाहिर है कि झारखण्ड इलाके तथा देश की सम्पदा के एक विशाल हिस्से पर दुश्मन वर्ग का ही मालिकाना व नियंत्रण है, उनकी शोषण-व्यवस्था की मूल आर्थिक बुनियाद-यही है उनकी आर्थिक ताकत की मूल बुनियाद या जड़. देश की प्राकृतिक सम्पत्ति का मतलब ही है देश की सम्पत्ति या जनसाधारण की सम्पत्ति. मगर असल में झारखण्ड इलाके तथा पूरे देश की प्राकृतिक सम्पत्तियों का विशाल हिस्सा ही है इस धनिक गुट के मालिकाना व नियंत्रण में. सिर्फ प्राकृतिक सम्पदा ही नहीं, प्राकृतिक सम्पत्ति की मदद से मजदूर, किसान व मेहनतकश जनता की मेहनत से तैयार उत्पादन के साधनों या हथियारों का एक विशाल हिस्सा ही है इनके मालिकाना व नियंत्रण में.

थोड़े शब्दों में, झारखण्ड इलाके तथा पूरे भारत की कृषि (खेती के) उत्पादन व उद्योग धन्धों के उत्पादन के लिए आवश्यक समस्त उपकरणों या साधनों तथा सम्पत्तियों का अधिकांश भाग ही है मुट्ठीभर ‘देशी’ व विदेशी बड़े-बड़े अमीर गुट तथा उनके ही सेवादास बड़े-बड़े अफसर गुट की मिलकियत व नियंत्रण में. अच्छी-अच्छी खेती की जमीन व खेती करने के आवश्यक अन्य साधन, अन्य जमीन, जल-सम्पदा, जंगल-सम्पदा, खनिज-सम्पदा, बगीचे (चाय, कॉफी, रबड़ इत्यादि चीजों को तैयार करने के बगान), विभिन्न प्रकार के कल-कारखाने व उत्पादन के केन्द्र समूह, रेल व अन्यान्य यान-वाहन, यातायात व्यवस्था इत्यादि प्रायः सब कुछ पर ही कायम है उनका ही मालिकाना व नियंत्रण.

रूपए-पैसे, बैंक-बीमा, व्यापार-वाणिज्य तथा लेन-देन व्यवस्था प्रायः सब कुछ ही इनके हाथों में है. इनके हाथों में ही है बाजार की दर या भाव नियंत्रण करने की क्षमता, खेती व उद्योग-धन्धों में पैदा की गयी चीजों की बाजार दर बढ़ाने या कम करने की क्षमता. संक्षेप में, झारखंड इलाके तथा सारे भारत की उत्पादन या वितरण (बंटन) व्यवस्था ही इनके हाथों में है. यही है इसका मूल कारण जिसके लिए मजदूर-किसान तथा मेहनतकश जनता जो कुछ पैदा करते हैं या उत्पादन करते हैं, उसका विशाल हिस्सा फिर चला जाता है उनके ही मालिकाना या नियंत्रण में. सब कुछ उत्पादन या पैदा करते हैं मजदूर-किसान व मेहनतकश लोग, लेकिन चला जाता है उनके कब्जे में, उनके ही मालिकाना या नियंत्रण में.




हां, देहाती इलाकों में किसान जनता ने ही कठिन मेहनत करके तैयार की है खेती लायक जमीन व फसल. किन्तु अच्छी-अच्छी जमीन का अधिकांश भाग व उसमें तैयार प्रायः समूची फसल का मालिक है जोतदार-महाजन गुट. जमीन, कृषि-उत्पादन के दूसरे साधन, रूपये-पैसे व व्यापार पर मालिकाना व नियंत्रण के बल पर ही नाम मात्र मजदूरी देकर मजदूर खटाना, बटाईदारी खेती, सूद-बंधक, बेगारी (निःशुल्क काम करवाना), बाजार दर या भाव की धोखेबाजी या चालाकी की सहायता से व्यापारियों के द्वारा विभिन्न प्रकार की लूट-खसोट आदि विभिन्न तरह का शोषण ही तो चल रहा है. जंगली इलाकों में गरीब जनता को जीने के लिए एक अन्यतम उपाय या अवलम्बन है लकड़ी, विभिन्न प्रकार के फल-मूल व अन्यान्य वन-सम्पदा. लेकिन जन-साधारण का इस पर जैसे कोई अधिकार ही नही है. अपनी जरूरत के लिए एक टुकड़ा लकड़ी लाने के लिए भी घूस देनी पड़ती है.

बातों ही बातों में तरह-तरह के जुल्म तथा कभी-कभी मारपीट, झूठे मुकदमे व गिरफ्रतारी भी होती हैं. जंगल सम्पदा है देश की सम्पदा, जनसाधारण की सम्पदा- इस तरह की अच्छी-अच्छी बातें जरूर कही जाती हैं. परन्तु असल में ये जैसे वन विभाग के बड़े-बड़े अफसरों व ठेकेदारों की ही बपौती सम्पत्ति है. ठेका प्रथा के द्वारा ये लोग जंगल उजाड़ दे रहे हैं, ध्वस्त कर दे रहे हैं. और, इसी प्रकार जंगल इलाकों की जनता की जीवन-जिन्दगी पर वे करते हैं एक चरम प्रहार. फिर, दूसरी तरफ ये लोग जनता को ही जंगल ध्वस्त करने का जिम्मेदार ठहराते हैं. नया (बनावटी या कृत्रिम) जंगल तैयार करने के नाम पर लाखों-लाख रुपये यही लोग चोरी करते हैं.




शहर व औद्योगिक क्षेत्रों में भी एक ही बात है. कल-कारखानों, खानों, बिजली केन्द्रों से शुरू करके नाना तरह के उत्पादन केन्द्रों व संस्थाओं एवं रास्ता-घाट, रेल और अन्य यान-वाहन व यातायात व्यवस्था-थोड़े शब्दों में, उत्पादन और वितरण व्यवस्था के लिए कुछ आवश्यक है, वह सब कुछ ही तैयार करते हैं मजदूर और मेहनतकश लोग. यही लोग कठोर मेहनत करके तैयार करते हैं मनुष्यों के लिए अत्यंत जरूरी औद्यौगिक चीजों (कल-कारखानों आदि में तैयार की हुई चीजों) को. लेकिन इसके मालिक हैं मुट्ठीभर धनिक लोग और जो लोग कठिन मेहनत करके इन सब सम्पदों को पैदा करते हैं, वे ही लोग हैं इनके नौकर या गुलाम. सरकारी सम्पत्ति या राष्ट्रीय सम्पत्ति को जनता की ही सम्पत्ति कही जाती है, लेकिन असल में जनता का इन सबों के उपर कोई अधिकार या नियंत्रण ही नहीं हैं. जिस प्रकार गैर-सरकारी क्षेत्र में हैं, ठीक उसी प्रकार सरकारी क्षेत्र में भी- खान, कल-कारखाना, ऑफिस-दफ्रतर कहीं पर भी-हजारों-हजार, लाखों-लाख मजदूर, कर्मचारी तथा मेहनतकश जनता, जो कठोर मेहनत करके इन सब सम्पदों को पैदा करते है, उनके किसी मत या बात की कोई कीमत नहीं हैं. उनका कोई जनवादी अधिकार या राजनीतिक अधिकार भी नहीं है. सभी जगह बड़े-बड़े अफसर लोग ही सब कुछ है, सभी मामलों में हुक्म चलता है मुटटीभर बड़े-बड़े अफसरों का- जो प्रचण्ड मात्र में जन-विरोधी, स्वेच्छाचारी, भ्रष्टाचारी व घूसखोर हैं और जो खून पीने वाले धनिक गुट के सेवादास के अलावा और कुछ भी नहीं हैं. इन सब जुल्मी-लूटेरे बड़े अफसरों की वाहिनी है सरकारी या राष्ट्रीय विभाग व दफ्रतरों के कर्त्ता-धर्त्ता व विधाता. मंत्री-सभा रह सकती है और नहीं भी रह सकती है (जैसे- उनके ही घोषित तथाकथित जरूरी परिस्थिति में) मंत्री- सभा का अदल-बदल भी हो सकता है-जैसे वोट के जरिए होता है लेकिन ये अफसर लोग टिके ही रहते हैं.

मंत्रियों को पर्दे के हिसाब से सामने रखकर सरकार या राज्य का असली कामकाज का संचालन यही लोग करते हैं. हां, धनी लोगों के सेवादास बड़े-बड़े अफसरों की इस वाहिनी के माध्यम से ही-सरकारी टैक्स या कर-नीति आय-व्यय (बजट) नीति, घरेलू व विदेश-वाणिज्य नीति, तथाकथित विकास योजना (असल में जो होती है गरीबों पर टैक्स बिठाकर एवं दूसरे कायदों से जनता का खून चूसकर धनी लोगों के विकास या उनको और भी मोटा बनाने की ही योजना), सरकारी आर्थिक नीति इत्यादि सब कुछ पर ही धनिक गुट का प्रभाव व नियंत्रण कायम रहता है। उनके अपने स्वार्थ के लिए ही सब कुछ संचालित होता है- जनसाधारण या देश के हित के लिए कतई नहीं. जनता की जेब काटकर विशाल परिमाण में टैक्स या कर वसूल कर विभिन्न विभागों में जो खर्च दिखाया जाता है-कृषि उद्योग तथा विकास योजना के विभाग में हो अथवा शिक्षा व स्वास्थ्य विभागों में ही हो या पुलिस मिलिटरी के विभाग में हो-यह समूचा खर्च ही प्रधानतः इन प्रतिक्रियावादी धनिक गुट व उनके गुर्गे व पैर चाटने वाले तत्वों इन सब अफसरों के शासन-शोषण व मुनाफे के स्वार्थ की ही रक्षा करता हैं. संक्षेप में देश की प्राय- समस्त प्राकृतिक सम्पदा, प्रायः समस्त उत्पादनों के साधन ही इनके हाथों में है.




रुपए-पैसे, बैंक-बीमा, व्यापार-वाणिज्य तथा लेन-देन की व्यवस्था का प्रायः सब कुछ ही इनके हाथों में है-देश की समस्त उत्पादन व वितरण व्यवस्था तथा समूची अर्थ व्यवस्था ही है इनके मालिकाना व नियंत्रण में. और, यही है इनके मुनाफे के आधार पर तथा शोषण के आधार पर-उत्पादन व वितरण व्यवस्था की बुनियाद, यही है इनके निर्मम शोषण व लूट-खसोट व्यवस्था की आर्थिक जड़ या बुनियाद.

उपरोक्त बातों से यह पहलू साफ उजागर हो जाता है कि आदिवासी जनता के दुश्मन वर्ग कौन-कौन हैं ? हालांकि, आदिवासियों के बीच भी कुछ न कुछ वर्ग-विभाजन है. वहां भी विभिन्न वर्ग-स्वार्थ के बीच विरोध रहता है. पर ये सारे कुछ अमुमन भूमिहीन, गरीब, मंझौले और इने-गिने धनी किसानों के बीच का अंतरविरोध के रूप में तो रहता है, पर दुश्मनात्मक अंतरविरोध के रूप में अक्सर नहीं आता है.

आदिवासी जनता के अंदर क्लासिकी या सनातन अर्थ में या वर्गो को किताबी परिभाषा के अनुसार वर्ग-विभाजन लगभग नहीं है. और अगर है भी तो नाममात्र ही है. पर जब मध्यम वर्ग व धनी किसान वर्ग के कोई आदिवासी मौजूदा दलाल सरकार व राज्य का दलाली करने की भूमिका में उतर जाते हैं, तब उक्त लोगों को जनता का दुश्मन के बतौर चिन्हित किया जाता है और उसी ढंग से उनसे संघर्ष किया जाता है.

अब जहां तक आदिवासी जनता के लिए पार्टी कार्यक्रम कहने से वह है- पार्टी को ऐसी विशेष नीतियां सूत्रबद्ध करनी होगी, जिससे हम इन तबकों की व्यापक बहुसंख्या को नव-जनवादी क्रांति की मुख्यधारा में सक्रिय रूप से शामिल कर सकें. खासकर आदिवासी इलाकों पर, शासक वर्गों द्वारा उनकी घोर उपेक्षा एवं साथ ही उनके रणनीतिक महत्व को देखते हुए पार्टी को लम्बे दिनों तक विशेष ध्यान देने की जरूरत रहेगी. साथ ही आदिवासियों की निरंतर साम्राज्यवाद-सामंतवाद विरोधी संघर्षों की शानदार परम्परा को देखते हुए हमें उनके बीच से क्रांति के योद्धा व नेता तैयार करने के प्रयास मजबूती के साथ करने होंगे. उनके लिए राजनीतिक स्वायत्तता को सुनिश्चित करते हुए उन्हें राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषाई और शैक्षणिक मुद्दों पर संगठित करना हमारा कार्यभार है. साथ ही हमारा कार्यभार यह भी है कि हम उनके संघर्षों का नेतृत्व इस तरह करें कि वे बिल्कुल सच्चे अर्थों में पूरी तरह मुक्ति हासिल कर सकें.




3. प्रश्नः लम्बे समय से संघर्षरत इलाके में किस प्रकार के वर्ग शोषण मौजूद हैं ? उस विषय पर पार्टी का कार्यक्रम क्या है ?

उत्तरः पहले के दो प्रश्नों के जवाब में जो कुछ कहा गया है उससे अभी के समय में किस प्रकार का वर्ग-शोषण जारी है, उसके बारे में भी एक स्पष्ट धारणा मिल जाती है. विगत 50 वर्षों के क्रांतिकारी संघर्षों के दौरान बहुत कुछ पहलुओं में अनेकों प्रकार के बदलाव तो जरूर आए हैं, पर वर्ग और वर्ग-शोषण का अस्तित्व न केवल मौजूद है, बल्कि पहले के अपेक्षा कहीं-कहीं और तीव्र हुआ है. स्पष्ट है कि भारतीय जनता के आज भी आम दुश्मन हैं, साम्राज्यवाद खासकर अमरीकी साम्राज्यवाद, सामंतवाद यानी बड़ा-बड़ा जमीन्दार, जोतदार, महाजन, सूदखोर, व्यापारी, ठेकेदार और दलाल नौकरशाह पूंजीपति यानी अम्बानी, मित्तल, जिंदल, अडाणी, वेदांता, टाटा इत्यादि. जहां तक इन सारे कुछ के बारे में पार्टी कार्यक्रम का सवाल है वह तो नई जनवादी क्रांति को पूरा कर नब्बे प्रतिशत जनता की जनवादी व्यवस्था स्थापित करने के सवाल पर तथा उससे भी आगे बढ़कर समाजवाद की स्थापना हेतु पार्टी के जो घोषित कार्यक्रम हैं, वही कार्यक्रम ही हमारे लिए कार्यान्वयन करना जरूरी कर्तव्य है. उपरोक्त चर्चा के साथ सामंजस्यपूर्ण हमारी पार्टी कार्यक्रमों के दो-चार बिंदु को ही यहां पेश किया जा रहा है, वे हैं :

    • यह साम्राज्यवादी पूंजी के सभी बैंकों, व्यावसायिक उद्यमों तथा कम्पनियों को जब्त करेगा और सभी साम्राज्यवादी कर्जों को रद्द करेगा. यह साम्राज्यवादी देशों के साथ की गयी सभी असमान सन्धियों और समझौतों को भी रद्द करेगा.
    • यह राज्य दलाल नौकरशाह पूंजीपति वर्ग के सभी उद्योगों, उनकी पूंजी और चल-अचल सम्पत्ति को जब्त करेगा. पूंजी को नियन्त्रित करने के उसूल के आधार पर इस राज्य को सभी इजारेदार उद्योगों और व्यापारों का प्राधिकार और प्रशासन अपने हाथ में ले लेना होगा. नव जनवादी राज्य अन्य व्यक्तिगत सम्पत्ति को हाथ नहीं लगायेगा और ऐसे पूंजीवादी उत्पादन के विकास को बाधित नहीं करेगा, जिसके पास सार्वजनिक जीवन को नियन्त्रित करने की शक्ति न हो.
    • यह जमींदारों और धार्मिक संस्थाओं की सम्पूर्ण जमीन को जब्त करेगा और उसे ‘जमीन जोतने वालों की’ के नारे के आधार पर भूमिहीन-गरीब किसानों और खेतिहर मजदूरों में बांट देगा. यह भूमि पर महिलाओं के समान अधिकार को सुनिश्चित करेगा. यह इन वर्गों के साथ-साथ मध्यम किसानों तथा अन्य मेहनतकशों के सभी कर्जों को रद्द करेगा. यह कृषि के विकास के लिए सभी सुविधाओं को सुनिश्चित करेगा, कृषि उत्पाद के लिए लाभदायक कीमतों को सुनिश्चित करेगा और जहां भी संभव हो, कृषि-सहकारिता के विकास को बढ़ावा देगा तथा उसे प्रोत्साहित करेगा. इस प्रकार कृषि को नींव के रूप में रखते हुए यह एक मजबूत औद्योगिक अर्थव्यवस्था का निर्माण करने की ओर आगे बढ़ेगा.
    • साथ ही यह सूदखोरों, महाजनों व व्यापारियों के शोषण को समाप्त करेगा, जनता को जरूरत की पूंजी उपलब्ध कराने के लिए सहकारी संस्थाओं को बढ़ावा देगा और व्यापार तथा व्यवसाय को अपने नियन्त्रण में लेगा.
    • यह छः घंटे के कार्य-दिवस को लागू करेगा, मजदूरी-दर को बढ़ायेगा, ठेकेदारी मजदूरी की व्यवस्था तथा बाल-श्रम का खात्मा करेगा, सामाजिक सुरक्षा व सुरक्षित कार्य-परिस्थिति मुहैया करायेगा और समान काम के लिए समान मजदूरी की गारण्टी देकर लिंग के आधार पर मजदूरी में सभी असमानताओं को खत्म करेगा.




  • यह ‘जमीन जोतने वाले की’ के आधार पर जमीन का बंटवारा करके और गरीब किसानों तथा भूमिहीन किसानों (जिनका बड़ा हिस्सा दलित, आदिवासी तथा दूसरी उत्पीड़ित जातियां होंगी) के नेतृत्व वाली नयी सत्ता के सहारे जाति व्यवस्था के उन्मूलन की प्रक्रिया शुरू करेगा. यह जातिगत भेदभाव तथा असमानता को खत्म करेगा और समग्र रूप से छुआछूत तथा जातिप्रथा का सम्पूर्ण विनाश करने की ओर बढ़ेगा. तब तक यह दलितों व सामाजिक रूप से सभी उत्पीड़ित जातियों की उन्नति के लिए आरक्षण सहित विशेष सुविधाओं को सुनिश्चित करेगा.
  • यह महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार के भेदभाव को खत्म करने की दिशा में आगे बढ़ेगा और पुरुष-प्रधानता तथा पितृसत्ता को समाप्त करने के लिए हर सम्भव प्रयास करेगा. यह राज्य महिलाओं को घरेलू कामकाज की बेड़ियों से मुक्त करायेगा और सामाजिक उत्पादन तथा अन्य गतिविधियों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करेगा. यह सार्वजनिक कपड़ा धुलाई स्थल, शिशु-गृहों और सार्वजनिक रसोईघरों को चलायेगा. यह सम्पत्ति पर महिलाओं के समान
    अधिकार की भी गारण्टी करेगा. महिलाएं जिन असमानताओं का सामना करती हैं उनको तेजी से खत्म करने के लिए यह विशेष नीतियों को बढ़ावा देगा और महिलाओं की उन्नति के लिए आरक्षण सहित विशेष सुविधाओं को सुनिश्चित करेगा. यह राज्य वेश्यावृत्ति में लगी महिलाओं का पुनर्वास करेगा और उन्हें सामाजिक मान्यता प्रदान करेगा.
  • यह सभी आदिवासी समुदायों के सम्पूर्ण विकास के लिए उन्हें विभिन्न स्वायत्तताएं सुनिश्चित करेगा और तदनुसार विशेष नीतियां लागू करेगा.
  • यह राष्ट्रीयताओं के अलग होने के अधिकार सहित आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्यता देकर तथा उनकी समान मर्यादा के आधार पर देश को एकताबद्ध करेगा. यह भारत के लोक जनवादी संघीय गणराज्यों के स्वैच्छिक महासंघ की स्थापना करेगा.
  • धार्मिक अल्पसंख्यकों पर अत्याचार और धर्म-आधारित सभी सामाजिक असमानताओं को यह राज्य समाप्त करेगा. साथ ही यह उनके सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए विशेष नीतियों को लागू करेगा. यह राज्य की वास्तविक धर्मनिरपेक्षता की गारण्टी करेगा और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धर्म के इस्तेमाल पर रोक लगायेगा. यह धार्मिक मामलों में राज्य की दखलअन्दाजी को समाप्त करेगा. यह धर्म को मानने और न मानने की व्यक्तिगत आजादी की गारण्टी करेगा. साथ ही यह कुसंस्कारों व अन्धविश्वासों को दूर करने के लिए एक वैज्ञानिक तथा तर्कसंगत दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करेगा और सभी किस्म के धार्मिक रूढ़िवाद का विरोध करेगा.
  • यह राज्य सभी राष्ट्रीयताओं की भाषाओं को समान दर्जा देगा. यह बिना लिपि की भाषाओं के विकास में सहायता करेगा. राष्ट्रभाषा या सम्पर्क-भाषा के नाम पर या किसी भी रूप में यह राज्य दूसरी राष्ट्रीयताओं पर किसी भी भाषा को नहीं थोपेगा.
  • यह पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए विशेष प्रयासों के द्वारा क्षेत्रीय असमानताओं को खत्म करने की ओर बढ़ेगा. यह राष्ट्रीयताओं के बीच नदी जल बंटवारा, सीमा विवाद जैसे मुद्दों को आम सहमति से हल करेगा.





4- प्रश्नः भूमि को लेकर संघर्ष का अथवा जमीन कब्जा का संघर्ष कितना प्रासंगिक है ?

उत्तरः भूमि-संघर्ष की जरूरत आज भी उतना ही है जो पहले भी थी क्योंकि जनता के हाथ में जबतक राजनीतिक सत्ता नहीं आएगी तब तक जमीन पर हमेशा के लिए जनता का कब्जा नहीं रह सकता है. इसलिए जमीन के सवाल पर लड़ाई सत्ता कब्जा करने की लड़ाई के साथ ओतप्रोत है तथा और स्पष्ट कर करने से जमीन पर कब्जा जमाने की लड़ाई का लक्ष्य केवल कुछ जमीन प्राप्त करना ही नहीं होना चाहिए, बल्कि सत्ता पर काबिज होने की लड़ाई के लक्ष्य के अधीन ही जमीन-संघर्ष का संचालन करना चाहिए. विदित है कि क्रांतिकारी किसान आंदोलन का शुरूआती दौर में हमारा नारा था ‘सही किसानों के हाथ में जमीन’ और ‘‘क्रांतिकारी किसान कमेटी के हाथ में राजनीतिक शासन या हुकूमत’’ और बाद में लड़ाई के उन्नत स्तर में जहां छापामार जोनों और आधार क्षेत्रों की स्थापना हो सकती है वहां पर हमारा नारा है ‘‘जोतने वालों को जमीन और क्रांतिकारी जन कमेटियों के हाथ में राजनीतिक सत्ता’’. फिर, समूचे भारत के विभिन्न प्रांतों में जल-जंगल-जमीन और इज्जत-आजादी सहित तमाम आर्थिक व राजनीतिक अधिकारों की आवाज पर संघर्ष जारी है, जो क्रमशः तीव्र से तीव्रतर हो रहा है.

उपरोक्त तमाम कुछ की पृष्ठभूमि में यह बात जोरपूर्वक कहा जा सकता है कि न केवल जमीन लेकर संघर्ष मौजूदा समय में प्रासंगिक है, बल्कि हमारा ये प्रमुख कार्यभार भी है. चाहे वह आंदोलन बिहार में हो या झारखंड में या पूरे भारत में, हर जगह पर जमीन का संघर्ष हमारा एक प्रमुख कार्यभार रहना चाहिए.




5. प्रश्नः बिहार-झारखण्ड में जात-पात का सवाल किस रूप से शोषण का हथियार के बतौर इस्तेमाल हो रहा है ? इसे लेकर पार्टी का कार्यक्रम क्या है ?

उत्तरः इस बात पर संदेह की कोई गुंजाईश नहीं है कि बिहार व झारखंड और खासकर व विशेषकर बिहार में शासक वर्गों की पुरानी नीति यानी ‘फूट डालो व राज करो’ की नीति के अनुसार जात-पात के सवालों को लेकर आम जनता के बीच तनाव उत्पन्न कर एक जाति के लोगों के साथ दूसरे जाति के लोगों को आपस में लड़वा देना. यह हथकंड़ा आज भी अपनाया जा रहा है. इसके अलावा, हिन्दू-मुसलमान, दलित-गैरदलित, आदिवासी-गैर आदिवासी, इत्यादि भेदभाव को भी उकसाया जा रहा है. तब पार्टी का कर्तव्य क्या होना चाहिए ? पार्टी की मूलगत सोच व कार्यभार निम्नरूप हैं, वे हैंः

हालांकि दलितों का सवाल अपनी अन्तर्वस्तु में एक वर्गीय सवाल है, फिर भी पार्टी को चाहिए कि वह नव-जनवादी क्रान्ति के एक हिस्से के बतौर दलितों व अन्य पिछड़ी जातियों पर जातिगत उत्पीड़न के खिलाफ संघर्षों का नेतृत्व करे और जाति व्यवस्था के उन्मूलन की ओर बढ़ते हुए जातिगत भेदभाव तथा जातिगत उत्पीड़न के सभी रूपों से लड़ने के दौरान सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रें में उनके लिए बराबरी का दर्जा हासिल करने के लिए संघर्ष करे.

पार्टी को दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों के समान अधिकारों, आरक्षण और अन्य खास विशेषाधिकारों के लिए संघर्ष करना होगा. साथ ही साथ इससे सम्बन्धित शासक वर्ग की पार्टियों और राज्य की नीतियों के खोखलेपन का भण्डाफोड़ करना होगा. हमें उन अवसरवादी दलित नेताओं का भण्डाफोड़ करना होगा, जो दलितों के मुद्दों को उठाने के नाम पर अपना चुनावी भविष्य संवारते हैं. हमें अपने वर्गीय संगठनों के माध्यम से दलितों पर हिंसा और भेदभाव के सभी रूपों के खिलाफ संघर्षों की पहल करनी चाहिए और नेतृत्व करना चाहिए. समाज के नये जनवादी रूपान्तर के अंग के रूप में छुआछूत व जातिगत भेदभाव से लड़ने और जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए संगठनों का निर्माण करने की भी तत्काल फौरी आवश्यकता है. साथ ही पार्टी को राजनीतिक, विचारधारात्मक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में जातिवाद और छुआछूत के खिलाफ तब तक संघर्ष जारी रखना होगा, जब तक कि जातिवादी सोच पूरी तरह खत्म नहीं हो जाती.




6. प्रश्नः बड़े प्रोजेक्टों के साथ इलाके के सामंत वर्गों के स्वार्थ संबंध किस प्रकार के हैं ?

उत्तरः सीधे तौर पर उक्त प्रश्न का उत्तर देना है तो एक बात में कहा जा सकता है कि बड़े-बड़े प्रोजेक्टों के साथ आंचलिक या स्थानीय सामंतवर्गो का घनिष्ठ संबंध है. बिहार व झारखण्ड को पुलिस छावनी में बदल कर और उसके बल पर इलाके के अंदर ही चाहे बिहार के मैदानी क्षेत्र हो अथवा झारखण्ड के पहाड़-जंगल क्षेत्र, बड़ा-बड़ा सामंत, जमींदार और महाजनों के सांठगांठ से इलाके के भूमिहीन, गरीब व आदिवासी तथा मध्यम वर्ग के किसानों की जमीन भूमि अधिग्रहण कानून के अध्यादेश को जोर जबरन लागू कर उन्हें यानी विशाल संख्या में जनता को विस्थापित कर बड़ा-बड़ा प्रोजेक्ट बनाने का प्रयास जारी है. टाटा व वेदांता का स्टील सहित अन्यान्य प्रोजेक्ट, अडाणी का पवार प्लांट प्रोजेक्ट, बड़ा-बड़ा सौर उर्जा का प्रोजेक्ट इत्यादि अनेकों प्रोजेक्ट बनाने की योजना है. पर, माओवादी पार्टी की रहनुमाई में जनता की लड़ाई लगातार चलते रहने के कारण इस योजना का कार्यान्वयन सभंव नहीं हो पा रहा है.

यह भी जगजाहिर है कि गांवों के सामंत वर्ग और दलाल नौकरशाह पूंजीपतियों के बीच हर तरह का घनिष्ठ संबंध यानी आर्थिक व राजनीतिक संबंध मौजूद है. प्रशासनिक व पुलिस विभाग के बड़ा-बड़ा आला-अफसर उसी वर्ग के घर के लोग होते है, विभिन्न शासक पार्टी के अधिकांश नेता लोग वही वर्ग के होते है और मंत्री लोगों के अधिकांश भी वही वर्ग के लोग होते हैं. इसलिए, वर्गीय शोषण व शासन तथा वर्गीय विचार व्यवस्था बदस्तूर जारी है. इसलिए किसी
भी प्रोजेक्ट का सवाल हो उक्त शोषक-शासक वर्ग का सांठगांठ के जरिए उनके वर्गीय हित की रक्षा की जा रही है और मौजूदा व्यवस्था रहने तक ऐसा-ही होता रहेगा- यह बात निश्चित है. इसे उलट देना है तो सशस्त्र कृषि-क्रांतिकारी लड़ाई को और तेज करते हुए गुरिल्ला युद्ध को चलायमान युद्ध में, पीएलजीए को पीएलए में, छापामार इलाके को आधार इलाके में बदल डालने की प्रकिया को तेज करते हुए भारत में नव-जनवादी क्रांति को सफल बनाकर जनता की जनवादी व्यवस्था स्थापित करना होगा. तभी जनता व देश की मूल-मूल समस्याओं का हल निकालकर समाजवाद की ओर कदम आगे बढ़ाया जा सकता हैं. भविष्य उस दिशा की ओर ही आगे बढ़ने का स्पष्ट संकेत कर रहा है. आवें, उस दिशा की ओर हम सभी चल चलें.




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