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दिल्ली चुनाव का देवासुर संग्राम

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दिल्ली चुनाव का देवासुर संग्राम

गुरूचरण सिंह

पारसी थियेटर की याद तो होगी ही. बिना माइक जोर-जोर से बोले जाने वाले नर्सरी राइम जैसे काव्यमय संवाद हुआ करते थे उसके. चौक-चौराहे पर खेली जाने वाली पंडित राधेश्याम की लिखी रामलीला आज भी उसकी याद दिला जाती है. काफी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है हिंदी रंगमंच के विकास में उसका. बाद में कुछ फिल्में भी बनी थी उसकी तर्ज पर ‘यहूदी’ और ‘यहूदी की बेटी’ जैसी. उसकी सबसे बड़ी खासियत थी शोर-शराबा और अत्यधिक नाटकीयता. कुछ वैसा ही आनंद मिलता था जैसा देश की सबसे बड़ी पंचायत में इस्तेमाल की जाती भाषा के स्तर, विचार की गहराई और नारेबाजी, अपने नेता या आराध्य का जय जयकार, दूसरे पक्ष के लोगों के भाषण टोकाटोकी और बेमतलब की आवाजें सुन कर मिलता है अर्थात विचार नहीं होता वहां पर बस आरोप-प्रत्यारोप का दौर ही चलता है और अंत में होता वही है जो पहले से ही निर्धारित है, संख्या बल से ही जिसका निर्णय होना है.

दिल्ली चुनाव में भी इसकी एक बानगी देखने में आई. कुछ अच्छा हुआ और कुछ बहुत बुरा. अच्छा यह कि पहली बार चुनाव आयोग ने बेहतरीन सूझबूझ का परिचय देते हुए ईवीएम से वोट करने के बाद एक लंबी सीटी बजने पर उम्मीदवारों का फोटो और चुनाव चिन्ह दिखाने की पहल की है. कम से कम अनपढ़ लोगों की दुविधा तो दूर हो ही जाएगी कि उनका वोट सही उम्मीदवार को ही गया है, भले ही बाद में कुछ भी होता रहे.

उमड़-घुमड़ कर आए काले-काले बादल जम कर बरसे इस चुनाव में आप और कांग्रेस पर ठीक वैसे ही जैसे इंद्र के कोप की बरसात हुई थी गोकुलवासियों पर. लग रहा था टीवी पर देवासुर संग्राम चल रहा है और उससे पहले देवताओं के सेनापति ने असुरों की कई पीढ़ियों के इतिहास का एक एक पन्ना तिरस्कार से पढ़ते हुए फाड़ कर चुनावी युद्ध का उद्घोष कर दिया हो. पूरा भाषण ही चुनावी लग रहा था जिसका एकमात्र मकसद था ‘ईमानदार बनाम बेइमान’ को मुद्दा बनाना.

दिल्ली के चुनाव हमेशा की तरह दो ही पार्टियों के बीच हुआ : आप और भाजपा के बीच. कांग्रेस दौड़ी अवश्य इस रेस में लेकिन रस्म अदायगी के लिए, दो ही फर्लांग दौड़ने पर हांफने लगी थी. कारण बड़ा साफ आप और कांग्रेस का वोट आधार एक ही है, एक का तो नुकसान होगा ही तभी दूसरी का फायदा हो पाएगा इसलिए एक्जिट पोल पर अगर यकीन किया जाए तो भाजपा को मिल रही सीटें इन हल्कों में कांग्रेस के अपना आधार फिर से पा लेने के प्रयास के रूप में ही देखा जाना चाहिए. भाजपा का जनाधार तो जनसंघ के जमाने से ही पक्का संघी वोट है ही, जिसमें अब उग्र हिंदुत्व का तड़का लग गया है. इसका फायदा नुकसान तो आप और कांग्रेस का होना है. कांग्रेस कै इसी वोट बैंक में सेंध लगाने वाले अन्य क्षेत्रीय दल भी हैं, जिनकी मौजूदगी दिल्ली में भी है.

प्रधानमंत्री स्तर के नेता का दिल्ली जैसे आधे-अधूरे राज्य के चुनाव मेंं शाहीन बाग जैसे मुद्दे उठा कर उसे यदि भावनात्मक और सांप्रदायिक रंगत देने की कोशिश करता है तो एक बात तो साफ है कि भाजपा को अब किसी तरह के दिखावे की जरूरत महसूस नहीं होती. उसने अपना असली रंग दिखा दिया है इन चुनावों में – सत्ता किसी भी कीमत पर.

उमड़-घुमड़ कर आए काले-काले बादल इस बार जम कर बरसे. इस चुनाव में आप और कांग्रेस पर ठीक वैसे ही जैसे इंद्र के कोप की बरसात हुई थी गोकुलवासियों पर. लग रहा था टीवी पर देवासुर संग्राम चल रहा है और उससे पहले देवताओं के सेनापति ने असुरों की कई पीढ़ियों के इतिहास का एक एक पन्ना तिरस्कार से पढ़ते हुए फाड़ कर चुनावी युद्ध का उद्घोष कर दिया हो. पूरा भाषण ही चुनावी लग रहा था, जिसका एकमात्र मकसद था इसे ‘ईमानदार बनाम बेइमान’ बनाना.

केवल दो ही मुद्दों पर चर्चा करूंगा यहां. सबसे पहले देशभक्ति को एक भावनात्मक मुद्दे के रूप में दोहने वाली सरकार का रक्षा सेनाओं के प्रति रवैया. जनसत्ता गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के हवाले से बताता है कि सीमा पर तैनात जवानों के लिए पीने का साफ पानी भी उपलब्ध नहीं है. ITBP की 177 चौकियों के एक चौथाई में तो बिजली तक नहीं है, जेनरेटर से ही चलाना पड़ता है काम. पत्रिका में छपी स्थायी समिति की रपट से खुलासा होता है कि सेना के 68% हथियार बेहद पुराने हैं, आधुनिक हथियारों की अत्यधिक कमी है फिर भी उसका बजट कम कर दिया जाता है. सेना की कैंटीन में मिलने वाले समान पर भी जीएसटी लगा दी जाती है. टैक्स के रूप में सेना को देने पड़ रहे हैं लगभग पांच हजार करोड़ रुपये सालाना .

इन छ: साल में सबसे अधिक उपेक्षित क्षेत्र रहा है शिक्षा, जिसका पहले से ही कम बजट घटा कर 3.8% कर दिया गया. याद रहे इसका 88% तो वेतन भत्तों में ही खर्च हो जाता है. पढ़ाई इतनी महंगी हो गयी है कि अब या तो अमीर ही अपने बच्चों को शिक्षा दिला पाते हैं या कर्ज लेकर मध्यवर्गीय परिवार. स्पर्धा के इस दौर में इसी तनाव में बहुत से छात्र तो आत्महत्या भी कर लेते हैं. इतनी महंगी और कर्ज ले कर पूरी की गई पढ़ाई करने वाले की पहली चिंता होती है जैसे-तैसे लिए गए कर्ज को उतारना. भ्रष्टाचार और पेशेवर बेइमानी यहीं से तो आरंभ होती है. ऐसे व्यक्ति के सामने नैतिकता तो कोई मुद्दा होती ही नहीं.

फिर वही पारसी थियेटर का मशहूर डायलॉग याद आ जाता है : ‘तुम्हारा खून खून है और हमारा खून पानी है !!’

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