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धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्राम

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[ इतिहास खुद को दुहराता है, यह कथन आज भी चरितार्थ है जब देश धार्मिक उन्माद में फंस कर अपना हित-अहित सब भूलकर धर्म के नाम पर सबकुछ कुर्बान कर देने पर उताबला हो गया है. भारतीय राजसत्ता का फासीवादी चरित्र हिन्दुत्ववादी मुखौटा ओढ़कर जब अपने ही देशवासी के खिलाफ षड्यंत्र करता नजर आता है और गरीबों-पीड़ितों के खून-पसीने के कमाई को चूस कर धन्नासेठों के खजाने को भर रहा है. इतना ही नहीं इन धन्नासेठों को हजारों-लाखों करोड़ रूपये लेकर देश से भाग जाने का भी मार्ग प्रशस्त कर रहा है. शेष तमाम देशवासियों को धर्म की घुट्ठी पिलाकर नशे की मदहोशी में डाल दिया गया है. जिस कारण धार्मिक नशे में डूबा यह देश अपना हित-अहित भूलकर धन्नासेठों के खजाने को भरने का एकमात्र उपकरण बनकर रह गया है.

स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर में भी धर्म का यह मसला उठा था, जिसका जवाब देश के तमाम प्रगतिशील और क्रांतिकारियों ने अपनी पूरी ताकत से दिया था, परन्तु आज यह धार्मिक उन्माद जिस भयानक उफान पर आ गया है, और उसके प्रतिवाद में जब कोई ताकतवर आवाज नहीं उठ रही है, जनता पूरी तरह इस धार्मिक नशे में झूम रही है, इस धार्मिक नशे के विरूद्ध सवाल उठाने वाले को निशाना बनाया जा रहा है, उनकी हत्या तक की जा रही है, तब इसका माकूल जवाब भी स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों के जरिये ही उठाया जा सकता है, ताकि यह देशवासियों को सनद रहे कि हम कितने गलीज में धंसते जा रहे हैं.

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सबसे सशक्त और भरोसेमंद आवाज अमर शहीद भगत सिंह का रहा है, जिन्होंने धर्म के इस नशे के खिलाफ सबसे पहले और सबसे सशक्त आवाज बुलंद किया था. मई, 1928 के ‘किरती’ में छपा यह लेख अमृतसर में अप्रैल महिने में हुई राजनीतिक कॉन्फ्रेंस और नौजवान सभा की कॉन्फ्रेंस में हुई शानदार बहस का नतीजा था, जिसमें धर्म की समस्या पर शहीद भगतसिंह और उनके साथियों में जमकर विचार-विमर्श हुआ. यह लेख उसी मसले पर प्रकाश डालता है. ]

धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्राम

अमृतसर में 11-12-13 अप्रैल को राजनीतिक कॉन्फ्रेंस हुई और साथ ही युवकों की भी कॉन्फ्रेंस हुई. दो-तीन सवालों पर इसमें बड़ा झगड़ा और बहस हुई. उनमें से एक सवाल धर्म का भी था. वैसे तो धर्म का प्रश्न कोई न उठाता, किन्तु साम्प्रदायिक संगठनों के विरुद्ध प्रस्ताव पेश हुआ और धर्म की आड़ लेकर उन संगठनों का पक्ष लेने वालों ने स्वयं को बचाना चाहा. वैसे तो यह प्रश्न और कुछ देर दबा रहता, लेकिन इस तरह सामने आ जाने से स्पष्ट बातचीत हो गयी और धर्म की समस्या को हल करने का प्रश्न भी उठा. प्रान्तीय कॉन्‍फ्रेंस की विषय समिति में भी मौलाना जफ़र अली साहब के पांंच-सात बार ख़ुदा-ख़ुदा करने पर अध्यक्ष पण्डित जवाहरलाल ने कहा कि इस मंच पर आकर ख़ुदा-ख़ुदा न कहें. आप धर्म के मिशनरी हैं तो मैं धर्महीनता (Irreligion) का प्रचारक हूंं. बाद में लाहौर में भी इसी विषय पर नौजवान सभा ने एक मीटिंंग की. कई भाषण हुए और धर्म के नाम का लाभ उठाने वाले और यह सवाल उठ जाने पर झगड़ा हो जाने से डर जाने वाले कई सज्जनों ने कई तरह की नेक सलाहें दी.

सबसे ज़रूरी बात जो बार-बार कही गयी और जिस पर श्रीमान भाई अमर सिंंह जी झबाल ने विशेष ज़ोर दिया, वह यह थी कि धर्म के सवाल को छेड़ा ही न जाये. बड़ी नेक सलाह है. यदि किसी का धर्म बाहर लोगों की सुख-शान्ति में कोई विघ्न न डालता हो तो किसी को भी उसके विरुद्ध आवाज़ उठाने की क्या ज़रूरत हो सकती है ? लेकिन सवाल तो यह है कि अब तक का अनुभव क्या बताता है ? पिछले आन्दोलन में भी धर्म का यही सवाल उठा और सभी को पूरी आज़ादी दे दी गयी. यहांं तक कि कांग्रेस के मंच से भी आयतें और मन्त्र पढ़े जाने लगे. उन दिनों धर्म में पीछे रहने वाला कोई भी आदमी अच्छा नहीं समझा जाता था. फलस्वरूप संकीर्णता बढ़ने लगी.

जो दुष्परिणाम हुआ, वह किससे छिपा है ? अब राष्ट्रवादी या स्वतन्त्रता प्रेमी लोग धर्म की असलियत समझ गये हैं और वही उसे अपने रास्ते का रोड़ा समझते हैं.

बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ता ? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतन्त्रता हासिल करने तक पहुंंचने में कोई असर नहीं पड़ता ? इस समय पूर्ण स्वतन्त्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमाग़ी ग़ुलामी का नाम देते हैं. वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि – ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है – बच्चे को हमेशा के लिए कमज़ोर बनाना है. उसके दिल की ताक़त और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है. लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो भी हमें नज़र आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है. मसलन हम चाहते हैं कि सभी लोग एक-से हों. उनमें पूंंजीपतियों के ऊंंच-नीच की छूत-अछूत का कोई विभाजन न रहे. लेकिन सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है बीसवीं सदी में भी पण्डित, मौलवी जी जैसे लोग भंगी के लड़के के हार पहनाने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं और अछूतों को जनेऊ तक देने से इन्कारी है. यदि इस धर्म के विरुद्ध कुछ न कहने की क़सम ले लें तो चुप कर घर बैठ जाना चाहिए, नहीं तो धर्म का विरोध करना होगा. लोग यह भी कहते हैं कि इन बुराइयों का सुधार किया जाये. बहुत ख़ूब ! छूत-अछूत को स्वामी दयानन्द ने जो मिटाया तो वे भी चार वर्णों से आगे नहीं जा पाये. भेदभाव तो फिर भी रहा ही. गुरुद्वारे जाकर जो सिख ‘राज करेगा खालसा’ गायें और बाहर आकर पंचायती राज की बातें करें, तो इसका मतलब क्या है ?

धर्म तो यह कहता है कि इस्लाम पर विश्वास न करने वाले को फिर तलवार के घाट उतार देना चाहिए और यदि इधर एकता की दुहाई दी जाये तो परिणाम क्या होगा ? हम जानते हैं कि अभी कई और बड़े ऊंंचे भाव की आयतें और मन्त्र पढ़कर खींचतान करने की कोशिश की जा सकती है, लेकिन सवाल यह है कि इस सारे झगड़े से छुटकारा ही क्यों न पाया जाये ? धर्म का पहाड़ तो हमें हमारे सामने खड़ा नज़र आता है. मान लें कि भारत में स्वतन्त्रता-संग्राम छिड़ जाये. सेनाएंं आमने-सामने बन्दूकें ताने खड़ी हों, गोली चलने ही वाली हो और यदि उस समय कोई मुहम्मद गौरी की तरह – जैसीकि कहावत बतायी जाती है – आज भी हमारे सामने गायें, सूअर, ग्रन्थ साहिब, वेद-क़ुरान आदि चीज़ें खड़ी कर दी जायें, तो हम क्या करेंगे ? यदि पक्के धार्मिक होंगे तो अपना बोरिया-बिस्तर लपेटकर घर बैठ जायेंगे. धर्म के होते हुए हिन्दू-सिख गाय पर और मुसलमान सूअर पर गोली नहीं चला सकते. धर्म के बड़े पक्के इन्सान तो उस समय सोमनाथ के कई हज़ार पण्डों की तरह ठाकुरों के आगे लोटते रहेंगे और दूसरे लोग धर्महीन या अधर्मी-काम कर जायेंगे. तो हम किस निष्कर्ष पर पहुँचे ? धर्म के विरुद्ध सोचना ही पड़ता है. लेकिन यदि धर्म के पक्ष वालों के तर्क भी सोचे जायें तो वे यह कहते हैं कि दुनिया में अन्धेर हो जायेगा, पाप बढ़ जायेगा. बहुत अच्छा, इसी बात को ले लें.

रूसी महात्मा टॉल्स्टॉय ने अपनी पुस्तक (Essay and Letters)) में धर्म पर बहस करते हुए उसके तीन हिस्से किये हैं –

1.  Essentials of Religion यानी धर्म की ज़रूरी बातें अर्थात सच बोलना, चोरी न करना, ग़रीबों की सहायता करना, प्यार से रहना, वग़ैरा.

2.  Philosophy of Religion, यानी जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, संसार-रचना आदि का दर्शन. इसमें आदमी अपनी मज़ीर् के अनुसार सोचने और समझने का यत्न करता है.

3.  Rituals of Religion यानी रस्मो-रिवाज़ वग़ैरा. मतलब यह कि पहले हिस्से में सभी धर्म एक हैं. सभी कहते हैं कि सच बोलो, झूठ न बोलो, प्यार से रहो. इन बातों को कुछ सज्जनों ने Individual Religion कहा है. इसमें तो झगड़े का प्रश्न ही नहीं उठता. वरन यह कि ऐसे नेक विचार हर आदमी में होने चाहिए. दूसरा फ़िलासफ़ी का प्रश्न है. असल में कहना पड़ता है कि Philosophy is the outcome of Human weakness यानी फ़िलासफ़ी आदमी की कमज़ोरी का फल है. जहांं भी आदमी देख सकते हैं. वहांं कोई झगड़ा नहीं. जहांं कुछ नज़र न आया, वहीं दिमाग़ लड़ाना शुरू कर दिया और ख़ास-ख़ास निष्कर्ष निकाल लिये. वैसे तो फ़िलासफ़ी बड़ी ज़रूरी चीज़ है, क्योंकि इसके बग़ैर उन्नति नहीं हो सकती, लेकिन इसके साथ-साथ शान्ति होनी भी बड़ी ज़रूरी है. हमारे बुज़ुर्ग कह गये हैं कि मरने के बाद पुनर्जन्म भी होता है, ईसाई और मुसलमान इस बात को नहीं मानते. बहुत अच्छा, अपना-अपना विचार है. आइये, प्यार के साथ बैठकर बहस करें. एक-दूसरे के विचार जानें. लेकिन ‘मसला-ए-तनासुक’ पर बहस होती है तो आर्यसमाजियों व मुसलमानों में लाठियांं चल जाती हैं. बात यह कि दोनों पक्ष दिमाग़ को, बुद्धि को, सोचने- समझने की शक्ति को ताला लगाकर घर रख आते हैं. वे समझते हैं कि वेद भगवान में ईश्वर ने इसी तरह लिखा है और वही सच्चा है. वे कहते हैं कि क़ुरान शरीफ़ में ख़ुदा ने ऐसे लिखा है और यही सच है. अपने सोचने की शक्ति (Power of Reasoning) को छुट्टी दी हुई होती है. सो जो फ़िलासफ़ी हर व्यक्ति की निजी राय से अधिक महत्त्व न रखती हो तो एक ख़ास फ़िलासफ़ी मानने के कारण भिन्न गुट न बनें, तो इसमें क्या शिकायत हो सकती है.

अब आती है तीसरी बात – रस्मो-रिवाज़. सरस्वती-पूजा वाले दिन, सरस्वती की मूर्ति का जुलूस निकलना ज़रूरी है. उसमें आगे-आगे बैण्ड-बाजा बजना भी ज़रूरी है. लेकिन हैरीमन रोड के रास्ते में एक मस्जिद भी आती है. इस्लाम धर्म कहता है कि मस्जिद के आगे बाजा न बजे. अब क्या होना चाहिए ? नागरिक आज़ादी का हक़ (Civil rights of citizen) कहता है कि बाज़ार में बाजा बजाते हुए भी जाया जा सकता है. लेकिन धर्म कहता है कि नहीं. इनके धर्म में गाय का बलिदान ज़रूरी है और दूसरे में गाय की पूजा लिखी हुई है. अब क्या हो ? पीपल की शाखा कटते ही धर्म में अन्तर आ जाता है तो क्या किया जाये ? तो यही फ़िलासफ़ी व रस्मो-रिवाज़ के छोटे-छोटे भेद बाद में जाकर (National Religion)) बन जाते हैं और अलग-अलग संगठन बनने के कारण बनते हैं. परिणाम हमारे सामने है.

सो यदि धर्म पीछे लिखी तीसरी और दूसरी बात के साथ अन्धविश्वास को मिलाने का नाम है, तो धर्म की कोई ज़रूरत नहीं. इसे आज ही उड़ा देना चाहिए. यदि पहली और दूसरी बात में स्वतन्त्र विचार मिलाकर धर्म बनता हो, तो धर्म मुबारक़ है.

लेकिन अलग-अलग संगठन और खाने-पीने का भेदभाव मिटाना ज़रूरी है. छूत-अछूत शब्दों को जड़ से निकालना होगा. जब तक हम अपनी तंगदिली छोड़कर एक न होंगे, तब तक हममें वास्तविक एकता नहीं हो सकती. इसलिए ऊपर लिखी बातों के अनुसार चलकर ही हम आज़ादी की ओर बढ़ सकते हैं. हमारी आज़ादी का अर्थ केवल अंग्रेज़ी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतन्त्रता का नाम है – जब लोग परस्पर घुल-मिलकर रहेंगे और दिमाग़ी ग़ुलामी से भी आज़ाद हो जायेंगे.

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