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भीमा कोरेगांवः ब्राह्मणीय हिन्दुत्व मराठा जातिवादी भेदभाव व उत्पीड़न के प्रतिरोध का प्रतीक

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[ महाराष्ट्र में सदियों से जारी चातुर्वर्ण व्यवस्था द्वारा जारी ब्राह्मणीय हिन्दुत्व मराठा जातिवादी भेदभाव व उत्पीड़न के प्रतिरोध में फूटी ज्वालामुखी है भीमा कोरेगांव, जिसको ब्राह्मणवाद के विरुद्ध पहली चिंगारी के तौर पर देखा जाता है, जिसमेंं पहली बार दलितों ने अंग्रेजों के नेतृत्व में ही सही पर ब्राह्मणीय हिन्दुत्ववादी ताकतों के खिलाफ हथियार उठाया था और उसे बलपूर्वक पराजित किया था. 

भारत के जनता की क्रांतिकारी पार्टी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) भीमा कारेगांव के सशस्त्र आन्दोलन को किस रुप में देखती है, इसे समझने के लिए उनके एक पर्चे को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे श्रीनिवास के द्वारा पश्चिम सब जोनल ब्यूरो, गडचिरोली के दंडकारण्य स्पेशल जोन की ओर से 10 जनवरी, 2018 को ही जारी किया गया था. ]

भीमा कोरेगांवः ब्राह्मणीय हिन्दुत्व मराठा जातिवादी भेदभाव व उत्पीड़न के प्रतिरोध का प्रतीक

1 जनवरी 1818 के दिन भीमा कोरेगांव परिसर में हुई युद्ध कार्रवाई में अंग्रेजी सेनाओं ने पेशवाईयों को हरा दिया था. उस समय अंग्रेजी सेना में 3000 सैनिकों से लैस एक महर रेजिमेंट था. महरों ने ही मराठा पेशवाईयों के खिलाफ जंग ए मैदान में कूदकर मात दिया था. यही कारण था कि सदियों से महर समुदाय पर ब्राह्मणीय उत्पीड़न. इसी वजह से बाद के समय में इसे दलित बनाम ब्राह्मण का रंग दिया गया था. उस युद्ध में अंग्रेजों ने अपनी जीत के प्रतीक के रूप में विजय स्तंभ का निर्माण किया था. चूंकि अंग्रेजों द्वारा इस युद्ध को जीतने में महर रेजिमेंट की अहम भूमिका थी, बाद के काल में जातिवाद पर दलितों की जीत का प्रतीक बना उस विजय स्तंभ को देखने हर वर्ष दलितों को जमावड़ा होता रहा. वह साल दर साल बढ़ता गया. वर्ष 1927 में डॉक्टर बाबा साहेब अंबेडकर ने भी भीमा कोरेगांव की दौरा की थी. इस वर्ष यानी जनवरी 2018 को भीमा कोरेगांव की 200वीं विजय जयंती समारोह मनाने का निर्णय हुआ.

इन समारोहों में शामिल होने वाले का जमावड़ा पूरा 3 लाख पार कर चुकी थी. इस आयोजन को विफल करने की योजना काफी पहले से हिन्दुत्व ताकतों द्वारा रची गई थी. भीमा कोरेगांव के नजदीक सणसवाडी में पूर्व नियोजित तरीके से हुये दंगा-फसाद के मुख्य सूत्रधार शिव प्रतिष्ठान व हिंदुस्थान के संस्थापक व शिक्षक संभाजीराव भिडे, हिंदू एकता मंच के मिलिंद एकबोटे थे. इन दंगों के दौरान नांदेड जिला हदगाव तहसील के आष्ठी में परीक्षा देने निकले 10वीं के 16 वर्षीय छात्र योगेश प्रह्लाद जाधव की मृत्यु हुई. वढू में हुई पत्थरबाजी से राहुल फटांगडे की मृत्यु हुई. दंगाइयों ने भीमा कोरेगांव के मुसलमान व बौद्धों की दुकानें व वाहनों को लक्ष्य बनाकर जलाया गया. इससे ग्रामीणों को 25 करोड़ रुपयों की आर्थिक क्षति हुई. दंगाइयों ने वढू के छोटी दुकानदार वैजयंता संजय मुथा नामक महिला दुकानदार की दुकान को राख कर दी थी, जिससे उनकी आजीविका तबाह हो गई. एक व्यवसायी जयेश शिंदे के अनुसार दंगाइयों ने चुन चुनकर दलितों व बौद्धों की दुकानें जलाई.

महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने गरमाती माहौल के मद्देनजर ताबड़तोड़ एक तथ्यान्वेषण समिति गठित करने की आदेश दे दी. जिसमें श्रमिक मुक्ति दल के अध्यक्ष डॉ. भारत पाटणकर, लाल निशाण पक्ष के सचिव भीमराव बनसोड, सत्यशोधक जागर मासिक के संपादक प्रा. प्रतिमा परदेशी, सत्यशोधक शेतकरी सभा के किशोर ढमाले आदि शामिल थे. उनके अनुसार ग्रामीणों का कहना था कि वढू, सणसवाडी, कोरेगाव भीमा गांवों में बाहर से आये हुए दंगाइयों द्वारा दंगा फसाद हुआ और यह पूर्व नियोजित था. इसके पूर्व में एकबोटे व भिडे ने उस इलाके का दौरा किया था. उस दौरान आयोजित बैठकों में पूरा माहौल तयार किया गया था. लेकिन इसकी राज्य शासन ने पूरा अनदेखी की. न तो जांच और न ही आवश्यक कदम उठाई. सुरक्षा के मद्देनजर पुलिस की तैनाती व बंदोबस्त बराबर नहीं किया गया. दंगें शुरू होने के बाद भी मौके पर पुलिस नहीं पहुंची.

भारिप बहुजन महासंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रकाश अंबेडकर इस पूरा घटनाक्रम के निषेध में 3 जनवरी को बंद का आह्वान दिया. इसे अच्छा प्रतिसाद मिला. आंबेडकरी संघटना, संभाजी ब्रिगेड, महाराष्ट्र लोकशाही आघाडी, डावी लोकशाही आघाडी, जातीमुक्त आंदोलन परिषद, एलगार परिषद इत्यादि पूरा 250 प्रगतिशील संगठनों ने इस बंद का समर्थन दिया.

अनेक ओबीसी संगठनों ने इसमें सक्रियता से भाग लिया. राज्यभर में मुंबई, ठाणे, नागपुर, पुणे से लेकर गड़चिरोली जिले के दूरदराज तहसीलें कुरखेडा व एटापल्ली तक राज्य के कोने कोने में प्रतिरोध की आग सुलग उठी. रेल रोको, रास्ता रोको, चक्काजाम आंदोलन हुआ. व्यावसायिक व शैक्षणिक प्रतिष्ठानें पूरा बंद रही. सभी तबकों के लोगों ने इस बंद का समर्थन दिया. ऐन मौके पर प्रकाश अंबेडकर जी ने तत्काल बंद को वापस बुला लिया, इसके बावजूद बंद का असर दूसरे तीसरे दिन भी रहा. आंदोलनकारियों व दलितों में उमड़ा आक्रोश थमने का नाम नहीं ले रहा था. ऐसे माहौल में अफसोस यह है कि प्रकाश आंबेडकर जी द्वारा बंद का वापस लेना. इससे राज्य के शोषित-उत्पीड़ित व दमित मुसलमान, दलित, ओबीसी समुदायों के ज्वलित आक्रोश पर पानी फेर दिया गया है. बंद वापस लेने की घोषणा के बावजूद तीन दिनों तक आंदोलनकारियों के आक्रोश की आग भभकती रही.

आंदोलनकारियों की मांगें कुछ इस प्रकार हैं -दंगों के मुख्य सूत्रधार मिलिंद एकबोटे व संभाजी भिडे की तत्काल गिरफ्तारी, दंगों के दौरान मृतक परिवारों को उचित मुआवजा दी जाए. भीमा कोरेगांव वासियों व व्यावसायियों की हुई वित्तीय क्षति का तत्काल भरपाई देना, कोरेगांव भीमा स्थित विजय स्तंभ के पास 24 घण्टे सुरक्षा की व्यवस्था करना, ग्रामीण क्षेत्रों में बसे दलित बस्तियों में पुलिस की सुरक्षा मुहैया कराना. ये मांगे जख्मी पर मरहम लगाने का काम करते हैं न कि जड़ से हल.

इस पूरे घटनाक्रम पर तमाम राजनीतिक पक्षों ने अपनी अपनी प्रतिक्रिया दी थी. रिपब्लिकन पक्ष के दलित नेता रामदास आठवले से लेकर राष्ट्रवादी कांग्रेस राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद पवार तक विधान सभा में इसका विरोध किया. लेकिन भारत के मनुवादी ब्राह्मणीय हिन्दुत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘मौनी बाबा’ की मुद्रा में इस पूरी घटनाक्रम पर चुप्पी साधे बैठे हैं.

दैनिक नव भारत में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 2011 की जनगणना के समय अनुसूचित जाति की आबादी 20 करोड़ थी जबकि वास्तविक गणना के हिसाब से इस समय देश में करीब 29-30 करोड़ दलित हैं. लेकिन आज भी बड़ी सरकारी पोस्ट पर इनकी मौजूदगी एक प्रतिशत भी नहीं है. देश के समूचे संसाधनों में इनकी हिस्सेदारी महज 1.58 प्रतिशत है. दलितों की कुल आबादी का 76 प्रतिशत से ज्यादा खेती-किसानी के कामों में लगा है. लेकिन 45 फीसदी दलितों के पास एक इंच भी जमीन नहीं है. ये सिर्फ मजदूर करने वाले किसान हैं. दलितों में सबसे ज्यादा कुपोषित हैं.

दलित सबसे ज्यादा बीमार पड़ते हैं उनकी औसत आयु बाकी समुदायों में सबसे कम है. उनके विरुद्ध सबसे ज्यादा अपराध होते हैं, हिंसा होती है. वह शहरों की सबसे अमानवीय बस्तियों में रहते हैं. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के लिए 2014 में जेएनयू के प्रोफेसर अमिताभ कुंडू ने एक रिपोर्ट तैयार की थी. उसमें साफ-साफ कहा गया था कि आज भी देश में एक तिहाई दलितों के पास जीवन की सबसे कम जरूरतों को पूरा करने वाली सुविधाएं भी नहीं हैं. इसी सिलसिले में दलित मसीहा का स्वांग भरने वाले दलित नेता रामदास आठवले के कथनानुसार इस देश में दर वर्ष दलितों पर 45 हजार हमलें होती हैं.

गुजरात उना के दलित नेता व गुजरात विधानसभा के नव निर्वाचित विधायक जिग्नेश मेवानी, जेएनयू के छात्र नेता उमर खालिद पर षड़यंत्र के तहत ही संघ परिवार व हिन्दुत्व ताकतों द्वारा भड़काऊ भाषण देने के गलत इलजाम पर उनके खिलाफ वारंट जारी किया गया. जिग्नेश ने इसकी कड़ी निंदा करते हुए कहा था कि गुजरात में भाजपा की गिरी साख से नाराज संघ परिवार मुख्य रूप से प्रधानमंत्री मोदी द्वारा उन पर खुन्नस निकाला जा रहा है.

उन्होंने यह भी कहा था कि 9 जनवरी 2018 को प्रगतिशील छात्र संगठना व आंबेदकरवादी कार्यकर्ता मिलकर ‘हुंकार रैली’ का आयोजन करेंगे. जिसके दौरान एक हाथ में मनुस्मृति और दूसरी हाथ में संविधान को लेकर दिल्ली स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय तक जाएंगे. इस अवसर जिग्नेश ने प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना करते हुए कहा था, सचमुच यह विडंबना ही है कि प्रधानमंत्री जी जहां एक ओर डिजिटल इंडिया, चंद्रग्रह में पानी की खोज, मंगलग्रह में बस्ती बिठाने की बात करते रहते हैं तो दूसरी ओर अपने समाज में मात्र समानता के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है.

अतः हमारी पार्टी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का महाराष्ट्र राज्य के तमाम शोषित-उत्पीड़ित-दमित दलित समुदायों, मुसलमानों व अन्य पिछड़ा समुदायों के अलावा तमाम जनवादी व प्रगतिशील मेधावियों से अनुरोध है कि समाज में व्याप्त मनुवादी व ब्राह्मणवादी विचारधारा को जड़ से उखाड़ फेंकना के लिए तैयार हो जाए. समाज में व्याप्त आर्थिक असमानताओं का जड़ जाति आधारित वर्गीय समाज को आमूलचूल नष्ट कर दे. भारत देश में जारी नव जनवादी क्रांति, जो देश के तमाम शोषित-उत्पीड़ित व दमित तबकों को सत्ता में समान भागीदारी की गारंटी देती है, में शामिल होकर
नई जनवादी राजसत्ता की स्थापना के लिए कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़े.

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