भारत में 17वीं लोकसभा का चुनाव होने जा रहा है. चुनाव प्रचार का रूप लगातार बदलता जा रहा है और खर्चीला होता जा रहा है. सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के अनुसार 1996 के लोकसभा चुनाव में 2500 करोड़ रूपया खर्च हुआ जो कि 2009 और 2014 में बढ़कर 10,000 और 35,547 करोड़ रू. हो गया. इस चुनाव में 50 हजार
करोड़ रूपया खर्च होने का अनुमान है जो कि अमेरिकी चुनाव से भी महंगा होगा. जिस तरह से पूंजीपति अपने उत्पादन को बेचने के लिए एडवरटाइजिंग (प्रचार) कम्पनियों का सहारा लेता है ठीक उसी तरह चुनाव में जनता तक पहुंचने के लिए विभिन्न पार्टियां प्रचार एजेंसियां की सहायता ले रही हैं.
प्रचार कम्पनियों के माध्यम से 2009 से इलेक्ट्रॉनिक चुनाव प्रचार पर बहुत बडा़ धन खर्च किया जा रहा है. चुनाव में काले धन का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है. इससे यह माना जाता है कि चुनाव के बहाने ही पर्चा, पोस्टर, बैनर, झंडे, बैच बनाने वाले छोटे कारोबारियों पेन्टरों इत्यादि की जेब में भी पैसे आ जाते हैं और अर्थव्यवस्था में थोड़ा सुधार होता है. लेकिन जिस तरह से यह चुनाव अब इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों और सोशल साईटों के जरिए लड़ा जा रहा है, उससे यह पैसा भी कुछ मीडिया घरानों की जेब में ही जाता है.
5 साल में भाजपा सरकार विज्ञापन पर करीब 5,000 करोड़ रूपया खर्च कर चुकी है और चुनाव के समय और ज्यादा रकम खर्च कर अपनी पांच साल की उपलब्धियों का बखान कर रही है. जहां 2014 का चुनाव भाजपा ‘सबका साथ, सबका विकास’, ‘बहुत हुआ नारी पर वार, अबकी बार मोदी सरकार’ ‘भ्रष्टाचार खत्म करेंगे’, ‘दो करोड़ लोगों को प्रति वर्ष रोजगार देंगे’ की बात करके सत्ता में आई थी, वही इस बार ‘मोदी है तो मुमकीन है’, ‘मैं भी चौकीदार’ की बात कर और सर्जिकल स्ट्राइक और अंतरिक्ष में ताकतवर बनने के सपने बेचकर दुबारा सत्ता में लौटना चाह रही है.
कांग्रेस पार्टी ‘चौकीदार चोर है’ का नारा लगा रही है और यूनिवर्सल आय (6,000 रू0 प्रति माह) की सपने लोगों को दिखा रही है. क्षेत्रीय पार्टियां जाति और अस्मिता के सवाल पर चुनाव जीतना चाहती है. कोई भी पार्टी (राष्ट्रीय या क्षेत्रीय) जनता के मुद्दे रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिलाओं की स्वतंत्रता, सुरक्षा या साम्राज्यवाद-पूंजीवाद परस्त नीतियों पर अपना मूंह नहीं खोल रही है, जिसके कारण आम आदमी की हालत बेहाल होती जा रही है.
इन नीतियों के कारण बेरोजगारों की फौज और मेहनतकश जनता आत्महत्या करने पर विवश हैं. मोदी सरकार उपग्रह रोधी मिसाइल का परीक्षण कर भारत को महाशक्ति बनाने का दुःस्वपन दिखा रही है जो कि वास्तविकता से मुंह मोड़ने जैसा है.
वर्ल्ड हंगर इंडेक्स (विश्व भूख सूचकांक) में भारत, नेपाल व बंगलादेश से भी पीछे 103वें स्थान पर चला गया है जबकि 2014 में 55वें स्थान (यानी 2014 से 2018 तक भूखे लोगों की संख्या लगभग दोगुना हो गई) पर था. मोदी पड़ोसी देश में एयर स्ट्राइक की बात कर रहे हैं लेकिन भारत विश्व खुशहाली के सूचकांक में पाकिस्तान, बंगलादेश से भी नीचे 133 वां स्थान पर है.
मोदी सरकार जहां पकौड़ा बेचने को भी रोजगार मान रही है, वहीं बेरोजगारी दर 8 प्रतिशत से अधिक पहुंच गई है, जिसके कारण मोदी सरकार ने बेरोजगारी के आकंड़े को निकालना ही बंद कर दिया. 2014 में किसानां से किये गये वादों को मोदी सरकार पूरा नहीं कर पाई तो किसानों को पार्लियामेंट पर नंगा होकर प्रदर्शन करना पड़ा, जो कि किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए शर्म की बात है.
दलितों, अल्पंसख्यकों पर अत्याचार बढ़े हैं वहीं आदिवासियों की जमीन को छीनकर पूंजीपतियों को दिया जा रहा है. इन्हीं लूट कि कमाई का दो-चार प्रतिशत खर्च कर पूंजीपति अपने मनमुताबिक सरकार का गठन करते हैं. देश में मॉब लिचिंग की घटनाएं भी बढ़ी है, जिसका रिपोर्ट खुद गृहमंत्री ने संसद में पेश किया है.
सांसदों को कौन चुनता है ?
चुनाव के नाम पर जनता के ऊपर कुछ धनबली-बाहुबली, गुंडे-माफिया, बलात्कारियों को पैसा लेकर चुनावबाज पार्टियां थोप देती हैं और उन्हीं में से कुछ संसद में जाते हैं. यही कारण है कि 15वीं लोकसभा में 300 करोड़पति-अरबपति थे, तो 16वीं लोकसभा में इनकी संख्या 442 हो गई. 15वीं लोकसभा में 150 आपराधिक पृष्ठभूमि के सांसद संसद में पहुंचे तो 16वीं लोकसभा में 179 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिसमें से 114 के ऊपर संगीन अपराध के मुकदमें हैं.
सभी पार्टियां को कॉरपोरेट जगत चुनाव में चंदा (रिश्वत) देती है. सरकार उन्हीं पार्टी की बनती है जो कि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की अच्छी से अच्छी सेवा कर सके. इसके बाद कॉरपोरेट जगत पार्टियों को दिये गये चंदे को सूद समते कई गुना वसूल करता है – जैसा कि मुकेश अंबानी की कमाई प्रतिदिन 300 करोड़ रूपया है और उसने 2018 में बिलगेट्स, वॉरेन बफे और लैरीपेज जैसे पूंजीपतियों को पीछे छोड़ दिया. इसी तरह 2017 में गौतम अदानी की सम्पत्ति जनवरी, 2017 से दिसम्बर, 2017 तक दोगुने से अधिक (125 प्रतिशत) हो गई. वहीं पर किसानों को फसलों का लागत मूल्य निकालने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. दिल्ली जैसे शहर में 6-7 हजार रूपया प्रति माह पर मजदूरों को काम करना पड़ता है.
आज तक देश की कोई भी सरकार पूरी जनसंख्या की 12-15% वोट पाकर ही बनती रही है, जिसको हम बहुमत की सरकार कहते हैं. हमारी कॉलोनियां, गांवों, कस्बों, बस्तियों, झुग्गी-झोपड़ियों में खद्रधारी झुंड दिखायी देने लगे हैं और उनके साथ-साथ हमारे ही आस-पास के कुछ छुटभैय्ये भी दिखने लगे हैं. वे हमें तरह-तरह के प्रलोभन दे कर अपने पक्ष में वोटे डालने के लिए कह रहे हैं. यह क्रम 1951 से ही चला आ रहा है, लेकिन आज तक यह लोकतंत्र हमें (भारत की पूरी जनता को) पीने के लिए साफ पानी तक मुहैय्या नहीं करा पाया है; शिक्षा-स्वास्थ्य तो दूर की बात है. पढ़े-लिखे युवाओं के पास रोजगार नहीं है लेकिन उन्हें स्टार्टअप के सपने दिखाए जा रहे हैं.
झूठे वायदे एवं प्रलोभन के सिवा जनता को कुछ नहीं मिला है. नेताजी आते हैं और जनता को देश सेवा का पाठ पढ़ाते हैं. लोगों को बताते हैं कि वे जन सेवा करने के लिए चुनाव लड़ रहे हैं और संसद, विधान सभा में जनता के मुद्दे को उठाएंगे और उनकी समस्याओं का हल करेंगे.
सन् 1947 के बाद इस देश में प्रायः सभी दलों की सरकारें बनीं. यहां तक कि देश और प्रदेशों में अलग-अलग क्षेत्रीय सरकारें भी बनी लेकिन आज तक जनता की समस्याएं कम होने के बजाय क्यों बढ़ती जा रही हैं ? ये ‘जन प्रतिनिधि’ संसद, विधानसभाओं में जाकर अपने चुनाव में खर्च (निवेश) किए हुए पैसे को सूद समेत निकालने में व्यस्त रहते हैं तथा अपने मालिक पूंजीपतियों की चौकदारी में व्यस्त रहते हैं.
कभी इस पार्टी से तो कभी उस पार्टी से पैसे लेकर सरकार बनाते-बिगाड़ते हैं, विदेशों में भ्रमण (मौज-मस्ती) करते हैं- जैसे कि 15वीं लोकसभा में युवा सांसदों को अमेरिका भेजा गया था लोकतंत्र का पाठ पढ़ने के लिए. इसी तरह उत्तर प्रदेश के विधायक 5 देशों की यात्रा पर गये हुए थे, तो 16वीं लोकसभा में अकेले मोदी जी ने सारे रिकॉर्ड तोड़कर विदेश भ्रमण करते रहे. देशी-विदेशी पूंजीपतियों से पैसा लेकर सरकारें सहमति-पत्र (एमओयू) पर हस्ताक्षर करती है और लोगों की जीविका के साधन जल-जंगल-जमीन को पूंजीपतियों के हवाले कर देती है.
यह रक्तपिपाशु भेड़िये अपने मुनाफे के हवस में लोगों को उनके जगहों से उजाड़ते हैं और विरोध करने पर गोलियों से भूनवा देते हैं. अभी कुछ माह पहले ‘सुप्रीमकोर्ट’ ने दस लाख आदिवासियों को जंगल से खदेड़ने के लिए राज्य सरकार को बोल दिया. जल-जंगल-जमीन से पूंजीपति ‘दिन दुना, रात चौगुना’ अपनी सम्पत्ति को बढ़ाते हैं और सांसद, विधायक उनके लूट में सहयोग कर अपने निवेश किए हुए पैसां को अगले चुनाव तक कई सौ गुना बढ़ाने में लगे रहते हैं.
मेहनतकश जनता की हालत
भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ किसान-मजदूर हैं लेकिन उनकी स्थिति बदतर होती जा रही है. रोटी-कपड़ा-मकान, जो किसी भी देशवासी के मौलिक अधिकार हैं, उससे भी देश की बहुसंख्यक जनता वंचित है. शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं. पीने का स्वच्छ पानी आज तक बहुसंख्यक जनता को नहीं मिल पा रहा है. हां, इतना जरूर हुआ है कि जो भी प्राकृतिक संसाधन उनके पास थे, उन पर भी कुछ मुट्ठी भर पूंजीपतियों का कब्जा होता जा रहा है. जल, जंगल, जमीन से आम जनता को उजाड़ा जा रहा है और देशी-विदेशी लुटेरों को कौड़ियां के मोल में दिया जा रहा है.
खनिज-सम्पदा की लूट जारी है और ये सफेदपोश नेता एजेन्ट का काम कर रहे हैं. बड़े-बड़े बांध बनाकर आम जनता को उजाड़ा जा रहा है और नदियों के प्रवाह को रोका जा रहा है ताकि इन लुटेरों की लूट को ‘दिन दूनी रात चौगुनी’ बढा़या जा सके. जब आम जनता इसका विरोध करती है तो काननू -व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर उन्हें लाठी-डंडों से पीट-पीट कर झूठे केसों में डाल दिया जाता है. यहां तक कि संगठित प्रतिरोध करने पर फर्जी मुठभेड़ में मार दिया जाता है और इस देश की ‘महान न्यायपालिका’ उस पर अपना रबड़-स्टाम्प लगा कर कानूनी जामा पहना देती है और उनकी लूट को कानूनी मान्यता मिल जाती है. इससे आम जनता पर दमन करना और आसान हो जाता है.
1991 में नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद से भारत की सभी पार्टियां केन्द्र व राज्य में सत्ता का सुख भोग चुकी है, लेकिन कोई भी पार्टी, सत्ता में रहते हुए इन नीतियों के खिलाफ कोई आन्दोलन नहीं की. यह वही नीतियां हैं जिसके कारण किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं. किसानों की खेती घाटे में जा रही है और उनकी लागत भी नहीं आ पा रही है.
स्वामिनाथन कमिटी की रिपोर्ट लागू नहीं की गयी बल्कि किसानों के मुद्दे पर कमिटी गठित कर छलने का काम किया जाता रहा है. किसानों का उत्पन्न किया हुआ अन्न बेचने वाली कारगिल, मेनसेन्टों जैसी कम्पनियां माला-माल होती जा रही है. किसानों के अन्न की कीमत संसद में तय की जाती है जबकि खेती में काम आने वाली खाद, कीटनाशक, दवाएं, ट्रैक्टर, पम्पसेट इत्यादि बनाने वाली कम्पनियां उनका मूल्य खुद निर्धारित करती हैं.
देश में अलग-अलग परियाजनाओं के नाम पर किसानों की उपजाऊ जमीन सस्ती दर पर छीनी जा रही है. श्रम कानून में संशोधन किए जा रहे हैं. आए दिन मजदूरों को छंटनी, तालाबंदी के नाम पर सड़कों पर फेंक दिया जा रहा है.
शिक्षा का व्यवसायीकरण किया जा रहा है और कॉरपोरेट आधारित शिक्षा को तरजीह दी जा रही है, ताकि पूंजीपतियों के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध कराया जाए. सरकार द्वारा जन कल्याण के नाम पर चलाई जा रही योजनाएं मनरेगा, बीपीएल कार्ड, स्कूल में मध्यान्तर भोजन या आंगनबाड़ी का क्या हश्र है, हम सभी जानते हैं.
पिछले चुनाव में गुजरात विकास मॉडल का ढोल बजाया गया, लेकिन गुजरात में किसका विकास हुआ है, यह किसी से छुपी बात नहीं है. ‘फूट डालो राज करो’ की नीति अपनाते हुए सत्ता के केन्द्र में बने रहने के लिए जनता को धर्म, जाति, क्षेत्र व भाषा के नाम पर बांटा जाता है.
प्रतिनिधियों से सवाल
वे चुनाव क्यों लड़ रहे हैं ? उनको जनता की सेवा और चौकीदारी करनी है तो संसद और विधानसभा में ही क्यों, जनता के साथ रहकर क्यों नहीं ? वे जो पैसा चुनाव पर खर्च कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं ? वे इतने पैसे कहां से लाये ? जनता को आज तक उनकी बुनियादी सुविधाएं क्यों नहीं मिलीं ? बेरोजगारी की दर क्यों बढ़ती जा रही है ? वे लोगों को रोजगार कैसे मुहैय्या कराऐंगे ? नई आर्थिक नीति, विश्व व्यापार संगठन के विषय में उनकी क्या सोच है ? प्राकृतिक सम्पदा पर किसका अधिकार होगा ? संसद और विधानसभाओं में सांसदों विधायकों को जूता-चप्पल, माईक-स्टैंड, मिर्च-स्प्रे का इस्तेमाल एक-दूसरे के खिलाफ क्यों करना पड़ता है ? राजनीति का अपराधीकरण कैसे हुआ ? देश की जनता एवं जनता की ताकतों को निश्चय ही उपरोक्त सवाल वोट मांगने आये ‘जन प्रतिनिधियों से पूछना चाहिए.
- सुनील कुमार, पत्रकार (नई दिल्ली)
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