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शैडौ ऑफ कास्ट  : जातिवाद का जहर

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भारत में जातिवाद कड़वी सच्चाई है, जिसका ही असर है कि तमाम सम्पदा और धन-धान्य से भरपूर रहने के वाबजूद भारत विश्व में पिछड़ा देश बन गया है. यहां किसी व्यक्ति की पहचान उसके ज्ञान से नहीं, उसकी जाति से होती है. यह ब्राह्मणवाद का सबसे नृशंस और अमानवीय पहलू है, जिसका संविधान ‘भारत का संविधान’ नहीं, मनुस्मृति जैसी मानवद्रोही साहित्य है. मनुस्मृति के अनुसार शिक्षा पाने का अधिकार केवल ब्राह्मणों और सवर्णों को है, अन्य पिछडी जातियों (शुर्द्रो, अछूतों, महिलाओं) को शिक्षा पाने का अधिकार नहीं है. यही कारण है कि शिक्षा ग्रहण कर रहे अन्य जातियों को पहले कान में पिघला सीसा और जीह्वा काट ली जाती थी, वहीं अब इतना ज्यादा जलील किया जाता है कि वे खुद ही मौत को गले लगाने पर मजबूर कर दिये जाते हैं.




रोहित वेमुला और अब डॉ. पायल ताड़वी जैसे छात्रों को सवर्ण ब्राह्मणवादी ताकतें हर रोज और हर कहीं प्रताड़ित और जलील करते हैं और उसे मौत को गले लगाने पर विवश करते हैं. चाहे वे छात्र के रुप में हो, शिक्षक या फिर अधिकारी के रुप में. इसी विषय पर एम्स दिल्ली में आर्थोपेडिक विभाग के प्रोफेसर शाह आलम खान ने लिखा है, जो अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस के 29 मई के अंक में प्रकाशित हुआ है. इस आलेख का अनुवाद किया है राजनैतिक मामलों के जानकार वरिष्ठ पत्रकार विनय ओसवाल ने.]

शैडौ ऑफ कास्ट  : जातिवाद का जहर

मुंबई सेंट्रल के नायर अस्पताल के सामने मेडिकल छात्र डॉ. पायल ताडवी की मौत के खिलाफ प्रदर्शन करते छात्र

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रचंड लोकसभा जनादेश के बाद बीजेपी मुख्यालय में अपने विजय भाषण में कहा कि ‘भारत में अब केवल दो जातियां हैं – गरीब और वे जो गरीबी दूर करेंगे.’ इससे पहले कि माहौल में उनके शब्दों की गूंंज सुनाई देनी बन्द होती, मुंबई के बीवाईएल नायर अस्पताल की युवा डॉक्टर, पायल तडवी ने आत्महत्या कर ली. वह कथित तौर पर अस्पताल में अपने वरिष्ठों से लगातार जाति-आधारित उत्पीड़न का सामना कर रही थी. तडवी ने मई, 2018 में जाति आधारित कोटा के माध्यम से एमडी स्त्री रोग पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया था. पीएम के उक्त कथन के बावजूद, जाति भारतीय समाज की भयावह सच्चाई है.




जातिवाद हमारे कार्यालयों, अस्पतालों, कारखानों, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों और यहां तक ​​कि शैक्षणिक संस्थानों आदि में सब जगह फैला हुआ है.तडवी उन तमाम दलित छात्रों जिनमें से कुछ – मदारी वेंकटेश, रोहित वेमुला, सेंथिल कुमार और पुलेला राजू हैं, की ‘रूह’ में शामिल हो जाती हैं, जो ठीक उन्ही कारणों से आत्महत्या कर चुके हैं जिन कारणों से तड़वी आत्महत्या करने को मजबूर हो गयी. उच्च शिक्षा के संस्थानों में जाति आधारित भेदभाव पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है.

मार्च, 2010 में यूपी के एक दलित और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), नई दिल्ली में एमबीबीएस के छात्र बाल मुकुंद भारती ने जातिसूचक गालियों के बाद आत्महत्या कर ली. एम्स के एक और एमबीबीएस छात्र अनिल कुमार मीणा ने मार्च, 2012 में आत्महत्या कर ली क्योंकि उन्हें अपनी पिछड़ी पृष्ठभूमि के लिए परेशान होना पड़ा. हमें बताया गया है कि पिछले 50 सालों में एम्स जैसे कुलीन संस्थान में प्रवेश पाने वाला बाल मुकुंद भारती अपने गांंव का पहला दलित छात्र था.




एम्स में जाति-आधारित भेदभाव की समस्या इतनी तीव्र थी कि अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के छात्रों के उत्पीड़न को देखने के लिए 2007 में सुखदेव थोरात की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था.

थोरट समिति की रिपोर्ट ने अंततः उच्च शिक्षा संस्थानों में जाति आधारित भेदभाव की पहचान करने के प्रयासों में एक मील के पत्थर के रूप में कार्य किया. लगभग 69 प्रतिशत एससी / एसटी छात्रों ने थोराट समिति को बताया कि उन्हें शिक्षकों से पर्याप्त सहायता नहीं मिलती और उनकी संख्या के लगभग आधे छात्रों ने बताया कि उन्हें शिक्षक या तो उपलब्ध नहीं होते अथवा हो भी जाएं तो उनका व्यवहार उदासीन होता है.




लगभग एक-तिहाई ने जातिगत पृष्ठभूमि को शिक्षकों द्वारा टाल-मटोल का कारण बताया और अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के 72 प्रतिशत छात्रों ने भेदभाव के के तरीकों का उल्लेख भी किया. लगभग 76 प्रतिशत छात्रों ने उल्लेख किया कि उनके कागजात की सही तरीके से जांच नहीं की गई और 88 प्रतिशत ने उल्लेख किया कि उन्हें शिक्षण के दौरान उम्मीद से कम अंक मिले हैं. इनमें से लगभग 84 प्रतिशत छात्रों ने कहा कि व्यावहारिक और चिरायु में मूल्यांकन अनुचित था और उनमें से 85 प्रतिशत ने उल्लेख किया कि अनुसूचित जाति के छात्रों को उच्च जाति के छात्रों की तुलना में परीक्षार्थियों के साथ पर्याप्त समय नहीं मिलता है.  इसके अलावा SC / ST छात्रों के एक बड़े समूह ने AIIMS में छात्रावासों में रहने के दौरान सामाजिक अलगाव और भेदभाव का अनुभव किया. रिपोर्ट में एम्स, दिल्ली में कार्यरत एससी / एसटी संकाय सदस्यों द्वारा महसूस किए गए भेदभाव को भी चित्रित किया गया है.




एम्स से सटे एक अन्य महत्वपूर्ण मेडिकल कॉलेज, वर्धमान महावीर मेडिकल कॉलेज (सफदरजंग अस्पताल का हिस्सा) है, यहां जाति आधारित भेदभाव 25 अनुसूचित जाति के छात्रों द्वारा सूचित किया गया था, उन्हें एक मुश्त शरीर विज्ञान में फेल किया गया. इस मामले की जांच 2012 में मुंगेकर समिति ने की थी. समिति ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) को सौंप दी थी, जिसमें कहा गया था कि SC / ST छात्रों के प्रति कॉलेज प्राधिकारियों की शत्रुता इतनी प्रबल थी कि सूचनाओं (जानकारियों) के लिए छात्रों को सूचना का अधिकार अधिनियम के अंतर्गत जानकारियां इकठ्ठी करनी पड़ती थी. समिति ने संबंधित संकाय और प्रशासनिक कर्मचारियों के निलंबन की सिफारिश करने के अलावा, परेशान छात्रों के लिए 10 लाख रुपये के मुआवजे की सिफारिश की.

शैक्षणिक संस्थान उच्च जाति और अमीरों के संरक्षण में संचालित हैं. जाति-आधारित आरक्षण के रूप में सकारात्मक कार्रवाई के साथ, इस आधिपत्य को एक महत्वपूर्ण सीमा तक चुनौती दी गई है और इसलिए उत्पीड़न, अपमान और ज़बरदस्ती के माध्यम से इस ‘आदेश’ को वापस लेने का माहौल बनाया जा रहा है. अपराधियों के खिलाफ विधायी आदेश और दंडात्मक कार्रवाई के अलावा, अधिक सकारात्मक और दीर्घकालिक समाधान होगा – सामाजिक स्थानों पर कब्जा करना.




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