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मुस्लिम प्रतिनिधित्व का मसला (1906-31)

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असगर मेंहदी

बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में राष्ट्रवाद की जो धारा विकसित हुई थी उसकी तीव्रता में वृद्धि तो हो रही थी लेकिन प्रतिक्रियावादी शक्तियां भी कम प्रबल नहीं थी. इन शक्तियों को 1858 में महारानी विक्टोरिया की घोषणा के बाद पंजाब और उत्तर भारत में फल फूलने के बेहतरीन अवसर प्राप्त हो रहे थे. धार्मिक-सामाजिक और राजनैतिक जागरूकता के नाम पर पुरुत्थानवादी रुझानों को अनुकूल वातावरण प्रदान करना औपनिवेशिक शक्तियों की ज़रूरत थी.

अलीगढ़ आंदोलन के प्रभाव नमूदार होने से पूर्व, पंजाब और उत्तर भारत में बहुसंख्यक समाज में ‘शुद्धिकरण’ के नाम पर पैदा की जा रही विकृतियों को ‘नकारात्मक जागरूकता’ का परिणाम माना जाना चाहिए. धार्मिक और सामुदायिक आवेगों द्वारा दबाव डालने की प्रवृत्तियाँ जिस प्रकार से कार्यरत थीं उसने धर्मनिरपेक्ष बनाम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर एक विमर्श या यूं कहें कि एक द्वन्द की स्थिति को पैदा कर दिया था. दोनों धाराओं के प्रवर्तक (promoter) अपने दावों की पृष्ठभूमि और परिकल्पना के पक्ष में अपने तौर पर साक्ष्य भी देते थे.

कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की एक परिकल्पना से मार्गदर्शन हासिल करती थी और उसका उद्देश्य आज़ादी की लड़ाई में सभी समुदायों के एकजुट करके वेस्ट्मिन्स्टर की तर्ज़ पर एक राज्य की स्थापना करना था. कांग्रेस के निकट ‘अनेकता में एकता’ का दर्शन भारतीय राष्ट्रवाद का सार था, जिसकी छवि ‘धार्मिक मामलों में तटस्थ’ राज्य के रूप में पेश की जा रही थी.

सेक्युलर राष्ट्रवाद सभी समुदायों और धर्मों की समानता और उनके बीच समायोजन की भावना को मुख्यआधार मानता था. लेकिन, औपनिवेशिक दृष्टिकोण इसके विपरीत था. उसके अनुसार भारतीय समाज की मूल इकाई धर्म, जाति और क़बीले से परिभाषित होती थी, जहां समन्वय नाम की कोई वस्तु थी ही नहीं. कांग्रेस जानती थी कि एक सच्चा सेक्युलर राष्ट्रवादी आंदोलन ही ब्रिटिश हुकूमत की आलोचना का जवाब बेहतर तरीक़े से दे सकता है.

उपनिवेशवादी दृष्टिकोण के विरोध में धर्मनिरपेक्ष भारतीय राष्ट्रवादियों के तर्क सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों द्वारा कमज़ोर कर दिए जाते थे और वास्तविक कठिनाई भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में थी, जिसने देश में कांग्रेस-विरोधी और धर्मनिरपेक्ष-विरोधी एक वैकल्पिक विमर्श को जन्म देने मेंअहम भूमिका निभायी थी. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद धार्मिक आदर्शों, स्वर्णिम अतीत की परिकल्पनाओं और उसकी सांस्कृतिक सामग्रियों को एक उभरते राष्ट्र के कल्पित आदर्श के बतौर पुनर्व्याख्यित करते हुए तरतीब देता था.

बीसवीं सदी के पहले दशक में सियासी फ़लक पर सब कुछ तेज़ी से घटित हो रहा था. अलीगढ़ आंदोलन के प्रभाव से मुस्लिम अभिजात्य वर्ग में काफ़ी बेदारी पैदा हो चुकी थी, जिसके नकारात्मक पहलू ब्रिटिश सरकार के उद्देश्यों को अप्रत्यक्ष रूप से सुदृढ़ करने की दिशा में अपनी भूमिका अदा करने को तैय्यार बैठे थे. औपनिवेशिक रणनीति नियंत्रित राजनीतिक सुधारों को आगे बढ़ाने के साथ-साथ राष्ट्रवादी आंदोलनऔर क्रांतिकारी गतिविधियों के अस्थिरकारी प्रभावों को दूर करने के लिए समाज के स्थिर वर्गों को सहयोगी बनाने की थी.

इस क्रम में जब Separate Muslim Electorates (पृथक निर्वाचन क्षेत्रों) की मांग औपचारिक रूप से 1 अक्टूबर 1906 के शिमला मेमोरियल में रखी गई तो इसे स्वीकार करते हुए 1909 के भारतीय परिषद अधिनियम के तहत, सरकार ने पूरे भारत में प्रांतीय विधान परिषदों में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र के साथ वेटेज सुविधा भी प्रदान कर दी. अक्टूबर 1909 में सरकार ने घोषणा की कि मुसलमानों के विशेष प्रतिनिधित्व केवल इस आधार पर स्वीकार किया गया था कि इतने महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक समुदाय को सुरक्षा की आवश्यकता थी.

हिंदू प्रचारकों ने इस नीति पर अपना कड़ा विरोध व्यक्त किया क्योंकि उन्हें डर था कि शासन व्यवस्था में पहुंच के कारण अल्पसंख्यक के रूप में मुस्लिम एक आधिपत्यवादी ताकत बन जाएंगे. हिंदू सभा के महासचिव शादी लाल ने वायसराय लॉर्ड मिंटो को एक याचिका के माध्यम से अपनी चिंताओं से अवगत भी कराया था.

ऐसा समझा जा सकता है कि इन ब्रिटिश सुधारों का उद्देश्य भारतीय मुस्लिम अभिजात वर्ग के माध्यम से उनकी वफ़ादारी को संरक्षित करते हुए देश में कांग्रेस के Petitionary आंदोलन, जो राष्ट्रवादी रूप धारण कर रहा था, को प्रभावी ढंग से कमज़ोर करना था, जैसा कि लॉर्ड कर्ज़न ने कहा था, ‘भारत में रहते हुए मेरी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षाओं में से एक कांग्रेस की शांतिपूर्ण मरण में सहायता करना है.’

कांग्रेस के निकट मुसलमानों को एक राजनीतिक श्रेणी में समूहित करना भारत में उसके ‘समावेशी’ राष्ट्रवाद के दृष्टिकोण के लिए विनाशकारी निहितार्थ वाली एक ऐतिहासिक घटना थी. कांग्रेस ने मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र और साथ में दी गयी ‘वेटेज’ प्रक्रिया पर सख़्त प्रतिक्रिया दर्ज करते हुए इसे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दरार पैदा करके भारतीय राष्ट्र की एकता के लिए ख़तरे के तौर पर पेश किया.

कांग्रेस में उदारवादी नेताओं का एक समूह था, जिसमें मुख्य रूप से मोती लाल नेहरू, तेज बहादुर सप्रू, जगत नारायण मुल्ला और ईश्वर शरण शामिल थे, जिन्होंने अंग्रेज़ों के विरुद्ध एकजुट गठबंधन केलिए मुस्लिम सहभागिता को अनिवार्य समझते हुए उन्हें मुख्य धारा में समायोजित करने के नीति के हिस्से के रूप में इस अधिनियम 1909 का समर्थन किया था.

इस अधिनियम की संवैधानिक व्यवस्थाओं को मान्यता देने के लिए 1916 में लखनऊ में एक समझौता हुआ, जिसके तहत औपचारिक रूप से मुसलमानों को अलग निर्वाचन क्षेत्र पर सहमति बन गयी. उदारवादी नेता मोतीलाल नेहरू और तेज बहादुर सप्रू के भारत में आज़ादी के लिए साझा मोर्चा के प्रस्ताव पर मोहम्मद अली जिन्ना, एनी बेसेंट और बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में एक पहल के तहत कांग्रेस और मुस्लिम लीग के साथ समझौता हुआ.

1919 के मोंटागु-चेम्सफोर्ड सुधारों द्वारा वास्तविक रूप से कार्यान्वित लखनऊ पैक्ट की योजना ने भारत की स्वतंत्रता के लिए एक व्यापक राष्ट्रवादी कार्यक्रम की अभिव्यक्ति की दिशा में एक निर्णायक क़दम का संकेत दिया था. वहीं दूसरी ओर, हिंदू महासभा ने 1916 में लखनऊ में आयोजित अपने तीसरे सम्मेलन में लखनऊ समझौते की निंदा की थी. लाला लाजपत राय ने लखनऊ समझौते को राष्ट्रवाद की उपेक्षा के रूप में ख़ारिज कर दिया. भारत में प्रांतों के प्रमुख हिंदुओं को एक परिपत्र में, उन्होंने संधि पर बातचीत में कांग्रेस की भूमिका की निंदा की, और उनसे भारत की स्वतंत्रता के संघर्षमें महासभा को अपना ‘राजनीतिक माउथपीस’ बनाने का आग्रह किया.

1920 के दशक में कांग्रेस ने सियासी आंदोलन शुरू किए जिसमें एक प्रतिनिधि सरकार के लिए मांग रखी गयी. इन मांगों ने भावी राजनीति में राष्ट्रीय एजेंडे को आकार ले लिया. फरवरी 1924 में मोतीलाल नेहरू ने एक पूर्ण ज़िम्मेदार, जो संविधान के आधार पर भारत के ‘आत्मनिर्णय’ के अधिकार की मान्यता दे, की मांग रखी. इसके साथ ही 1919 अधिनियम में संशोधन और आत्मनिर्णय की दिशा में गोलमेज़ सम्मेलन के माध्यम से एक संविधान बनाने, जो कि ब्रिटिश संसद से पारित हो, की मांग रखी गयी.

इस मांग की आधिकारिक प्रतिक्रिया यह हुई कि 8 नवंबर 1927 में सर जॉन साइमन के तहत सात ब्रिटिश सांसदों का एक ‘ऑल व्हाइट’ कमीशन का गठन कर दिया गया, जिसमें भावी ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लिमेंट एटली भी शामिल था. इस आयोग पर मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार के आलोक में जांच-पड़ताल कर के भारत को पूर्ण ‘प्रभुत्व’ का दर्जा देने के लिए एक संविधान विकसित करने का कार्य सौंपा गया था.

कांग्रेस ने साइमन कमीशन का मुख्य रूप से इस कारण विरोध किया कि ब्रिटेन ने ‘राष्ट्रीय इच्छा’ के विपरीत काम किया है और देश के सभी दलों से इस आयोग का बहिष्कार करने का आग्रह किया. दिसंबर 1927 में अपने मद्रास अधिवेशन में हिंदू महासभा ने साइमन कमीशन के ज़रिए सरकार की मुस्लिम समर्थक नीति के निर्धारण की आशंका जताते हुए बहिष्कार की घोषणा की.
वर्ष 1927 की शुरुआत में मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग ने ‘सर्द मोहरी’ को ख़त्म करने के लिये एक बैठक आयोजित की.

नयी पहल के तौर पर मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच की खाई को पाटने के लिए ताकि वे नए अधिनियम के कानून के लिए अंग्रेजों के सामने आम मांगें पेश कर सकें, प्रमुख मुसलमानों के एक समूह की यह बैठक 20 मार्च, 1927 को दिल्ली में सम्पन्न हुई, जिसकी अध्यक्षता मुहम्मद अली जिन्ना ने की. लगभग सात घंटे तक चले इस मीटिंग की कार्यवाही बंद कमरे में हुई.

इस बैठक में मुहम्मद अली जिन्ना की मदद से तैयार मुस्लिम लीग की ओर से पेश ‘दिल्ली प्रस्तावों’ का मसौदा पेश किया गया. जिसमें Joint Electorates (संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र) के पक्ष में Separate Electorates (पृथक निर्वाचन क्षेत्र) की व्यवस्था त्यागने की पेशकश की गई जो 1906 से मुस्लिम संवैधानिक राजनीति का एक आधार था. इसके एवज़ में चार मांगों की गारंटी मांगी गयी –

  1. केंद्रीय विधानमंडल में एक तिहाई मुस्लिम प्रतिनिधित्व.
  2. पंजाब और बंगाल सहित प्रांतीय विधानसभाओं में वेटेज’ के अतिरिक्त जनसंख्या के अनुपात में सीटों का आरक्षण.
  3. बॉम्बे प्रेसीडेंसी से अलग करके सिंध प्रांत का निर्माण.
  4. उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत (NWFP) और बलूचिस्तान में प्रशासनिक सुधारों का विस्तार करके दोनों को अन्य पूर्ण प्रांतों के समान प्रशासनिक दर्जा प्रदान करना.

यद्यपि, इन प्रस्तावों के कारण मुस्लिम लीग विभाजित हो गई और सर मुहम्मद शफ़ी के नेतृत्व में प्रमुख मुस्लिम लीग नेताओं, मुख्य रूप से पंजाब से, ने जिन्ना समूह से अलग होने का फ़ैसला कर लिया. इन मांगों के संदर्भ में 29 मार्च 1927 को एक प्रेस बयान में जिन्ना ने घोषणा की कि ‘चार प्रस्तावों’ को पूरी तरह से स्वीकार या अस्वीकार किया जाना चाहिए. जिन्ना ने स्पष्ट किया कि मुसलमानों को यह महसूस कराया जाना चाहिए कि राष्ट्रीय सरकार के विकास की दिशा में संक्रमणकालीन चरण के दौरान वे बहुसंख्यकों की ओर से उत्पीड़न के किसी भी कृत्य के खिलाफ सुरक्षित और सुरक्षित हैं.

कांग्रेस ने 26 दिसंबर 1927 को अपने कलकत्ता सत्र में दिल्ली के सभी प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया और उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत (NWFP) व बलूचिस्तान को राज्यपाल प्रांतों की पूर्ण स्थिति तक बढ़ाने और सिंध सहित अन्य भाषाई प्रांतों के निर्माण पर सहमत हुई. लेकिन, हिंदू महासभा ने अप्रैल 1927 में ही डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे की अध्यक्षता में पटना में आयोजित सत्र में दिल्ली के प्रस्तावों को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया. मूंजी ने मुसलमानों को चेतावनी दी कि यदि वे (मुसलमान) हिंदुओं के अधीन साबित नहीं हुए तो उन्हें बहिष्कार का सामना करना पड़ेगा.

बहरहाल, कांग्रेस ने जिन्ना के दिल्ली प्रस्तावों के संशोधित संस्करण पर पार्टी के भीतर बातचीत की शुरुआत एक अच्छा क़दम था. 15 मई 1927 को बंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक हुई जिसमें उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत (NWFP) के लिए प्रशासनिक सुधारों के तहत एक उपयुक्त न्यायपालिका के प्रावधान और आंध्र के पृथक किए जाने की शर्त पर सिंध के पृथक्करण पर सहमति बन गयी. हिंदू महासभा द्वारा कांग्रेस के भीतर बनी इस सहमति और ‘दिल्ली-बॉम्बे समझौता’ की ओर से इस पहल की तीव्र निंदा की गयी.

भारत मामलों के कंज़र्वेटिव पार्टी से राज्य सचिव लॉर्ड बिरकेनहेड ने दावा पेश किया कि भारत अपने लिए एक संविधान तैयार करने में असमर्थ है और इस के लिए वह पूरी तरह से ‘ब्रिटिश शासन पर निर्भर’ है. इस दावे के जवाब के लिए, 1928 में कांग्रेस ने एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया, जिसमें हिंदू-मुस्लिम प्रतिनिधित्व की समस्या को हल करके भारत के लिए एक संविधान का मसौदा तैयार किया जा सके. इस सम्मेलन में कांग्रेस, हिंदू महासभा, लिबरल पार्टी और मुस्लिम लीग ने भाग लिया.

इसका पहला सत्र 12 फरवरी 1928 को दिल्ली में और दूसरा मई 1928 में बंबई में हुआ. सम्मेलन की सभी बैठकों में महासभा ने संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र की ‘क़ीमत’ पर मुस्लिम बहुल पंजाब और बंगाल प्रांतों के लिए सीटों के आरक्षण के साथ-साथ सिंध को एक नए प्रांत के रूप में बनाने के प्रस्ताव को स्पष्ट रूप से ख़ारिज कर दिया. बी. एस. मुंजे, एम. आर. जयकर, एन. सी. केलकर ने एक घोषणापत्र जारी किया, जिसमें भारत में किसी भी नए प्रांत के गठन के प्रयासों की निंदा की गई जिसमें एक विशेष समुदाय बहुमत में है.

महासभा के विरोध को देखते हुए, मुस्लिम लीग ने 1928 में नियोजित सम्मेलन की अन्य सभी आगामी बैठकों का बहिष्कार करने का निर्णय लिया. मोतीलाल नेहरू ने सम्मेलन की बैठकों की विफलता के लिए महासभा को ज़िम्मेदार ठहराते हुए उसकी शत्रुतापूर्ण भूमिका पर चिंता व्यक्त की.

प्रतिनिधित्व से जुड़े उपायों के विवाद और अन्य व्यवस्थाओं को सम्बोधित करने के लिए सर्वदलीय सम्मेलन में एक नए संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति गठित किये जाने का निर्णय लिया गया. समिति में नौ सदस्य थे और अंतिम रिपोर्ट पर मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, अली इमाम, तेज बहादुर सप्रू, माधव श्रीहरि अनी, मंगल सिंह, शुएब क़ुरेशी, सुभाष चंद्र बोस और जी आर प्रधान ने हस्ताक्षर किए थे.

15 अगस्त 1928 को अनावरण किए गए ‘नेहरू संविधान’ ने मुसलमानों के लिए separate electorate (अलग निर्वाचन क्षेत्र) और ‘वेटेज’ को हटाकर joint electorate (संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों) का प्रावधान रखा गया था. उन प्रांतों में मुसलमानों को आरक्षण की पेशकश की जहां वे अल्पसंख्यक थे, लेकिन पंजाब और बंगाल में मुसलमानों के लिए सीटों के आरक्षण को ख़ारिज कर दिया गया.

इस प्रस्तावित संविधान ने केंद्रीय विधानमंडलों में मुस्लिम प्रतिनिधित्व कोटे को मुस्लिम लीग की एक तिहाई की मांग के बजाय एक चौथाई तक सीमित कर दिया, जिससे सत्ता में हिस्सेदारी की उस सम्भावना को ख़त्म कर दिया गया, जिससे उन्हें केंद्र में हिंदुओं के बराबर का दर्जा सुनिश्चित हो सके. नेहरू रिपोर्ट में सिंध को एक अलग प्रांत के रूप में बनाने की मांग को इस आधार पर ख़ारिज कर दिया कि राज्यों का पुनर्गठन भाषाई आधार पर होना चाहिए और सिंध के मामले में आर्थिक रूप से व्यावहारिक होने पर इसके नए प्रांत के रूप में मान्यता दिए जाने की बात कही गयी थी.

इसमें कहा गया कि यह ‘डोमीनियन’ स्थिति का प्रस्ताव था न कि पूर्ण स्वतंत्रता का. इसमें केंद्र में एकात्मक (Unitary) व्यवस्था पर आधारित एक भारतीय संघ का प्रस्ताव था, जिसमें केंद्र सरकार के पास रक्षा, वित्त, विदेशी मामले और भारतीय रियासतों के साथ संबंध जैसे विभागों को रखे जाने और सरकार को भारतीय विधायिकाओं के प्रति उत्तरदायी बनाए जाने की की व्यवस्था दी गयी थी.

नेहरू रिपोर्ट में Residual Powers (अवशिष्ट शक्तियाँ) को केंद्र में निहित किया था. इस प्रकार नेहरू योजना/रिपोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया था कि अखिल भारतीय संदर्भ में हिंदू-मुस्लिम प्रतिनिधित्व की समस्या कितनी विकट हो गई थी.

28 अगस्त 1928 को लखनऊ में आयोजित राष्ट्रीय सर्वदलीय सम्मेलन में नेहरू संविधान के अनुसमर्थन पर बातचीत में सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि भारत में एक ज़िम्मेदार सरकार होनी चाहिए, जिसकी स्थिति self-governing dominion अर्थात ‘स्वशासित प्रभुत्व’ से कम नहीं होना चाहिए और जिसमें
कार्यपालिका को निर्वाचित विधायिका के प्रति ज़िम्मेदार होना चाहिए.

28 दिसंबर 1928 को कलकत्ता में आयोजित दूसरे सम्मेलन में मुस्लिम लीग की ओर से मुहम्मद अली जिन्ना ने कुछ मौलिक संशोधन स्वीकृत किए जाने पर नेहरू रिपोर्ट का समर्थन करने की पेशकश की. joint electorate (संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों) की योजना को इस शर्त के साथ जोड़ा कि केंद्र में मुसलमानों के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित की जायें, साथ में पंजाब और बंगाल में आरक्षित सीटें तब तक रखी जाएं जब तक कि वयस्क मताधिकार का सिद्धांत पूरी तरह स्थापित नहीं हो जाता.

उसके साथ सिंध के बतौर एक प्रांत बनाने और Residual powers (अवशिष्ट शक्तियां) प्रांतों में निहित की जायें. जिन्ना के सुझावों को हिंदू महासभा के ‘शत्रुतापूर्ण’ विरोध का सामना करना पड़ा जिसके नतीजे में कलकत्ता सम्मेलन ने जिन्ना के प्रस्तावों को अनिवार्य रूप से अस्वीकार कर दिया.

एसोसिएटेड प्रेस के साथ साक्षात्कार में जिन्ना ने मुसलमानों के ‘रास्ते अलग होने’ के लिए महासभा को दोषी ठहराया. मोतीलाल नेहरू द्वारा प्रस्तावित संविधान भारत में अधिकांश मुस्लिम पार्टियों और उनके नेताओं को संतुष्ट करने में विफल रहा। उदारवादी मुस्लिम नेताओं तक ने नेहरू रिपोर्ट को ‘हिंदू दस्तावेज़’ के रूप में ख़ारिज कर दिया. उनके अनुसार पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की मांग एक राजनीतिक आवश्यकता के रूप में की गई थी क्योंकि इनके बिना हिंदुओं की महासभावादी मानसिकता का मुकाबला नहीं किया जा सकता था.

हिंदू महासभा ने नेहरू रिपोर्ट पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए इसे राष्ट्रीय मांग की एक साहसिक, मुखर और निडर अभिव्यक्ति के रूप में सराहा, क्योंकि नए संविधान के प्रावधानों के तहत हिंदुओं की विशेषाधिकार प्राप्त स्थिति को यथावत रखा गया था. 26 दिसंबर 1928 को शिमला में बी एस मूंजी की अध्यक्षता में एक आपातकालीन बैठक में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव के माध्यम से नेहरू रिपोर्ट की सिफ़ारिशों को स्वीकार कर लिया गया और इसे ‘युगांतकारी संविधान’ क़रार दिया गया.

मदन मोहन मालवीय ने इसके प्रस्तावों को पूर्ण समर्थन देते हुए रिपोर्ट का स्वागत किया. लाला लाजपत राय पूर्व में ही इसके समर्थन की घोषणा कर चुके थे. इसके बाद महासभा की तात्कालिक योजना नेहरू रिपोर्ट पर आगे की बातचीत को रोकने की थी.

नेहरू रिपोर्ट पर अपनी आपत्तियों को दर्ज कराने के बाद, 3 मार्च 1929 में जिन्ना ने चौदह बिंदुओं पर आधारित निम्नलिखित मसविदा पेश किया, जिसमें संघीय संविधान और प्रांतीय स्वायत्तता के प्रावधान पर पुरानी मांगों को दोहराया गया था. इसके अतिरिक्त मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों की मांग को फिर से प्रस्तुत किया गया था –

  1. भारत का संविधान संघात्मक (federal) हो और अवशिष्ट अधिकार प्रान्तों के अधीन रखा जाए.
  2. सभी प्रान्तों में सामान रूप से स्वायत्त शासन (autonomous government) की स्थापना की जाए.
  3. सभी विधानमंडलों और निर्वाचित निकायों का फिर से गठन किया जाए और अल्पसंख्यक जातियों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जाए. प्रांतीय विधानमंडलों में बहुसंख्यक लोगों का बहुमत रहे और उसे न तो घटाया जाए और न बराबरी पर लाया जाए.
  4. केन्द्रीय विधानमंडल में मुसलमानों का एक-तिहाई प्रतिनिधित्व रहे.
  5. सभी सम्प्रदायों का प्रतिनिधित्व पृथक निर्वाचन-पद्धति (separate electorate) के आधार पर हो और यदि कोई सम्प्रदाय चाहे तो वह संयुक्त निर्वाचन-पद्धति को अपना सकता है.
  6. पंजाब, बंगाल और पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में क्षेत्रीय पुनर्गठन इस ढंग से किया जाए कि उसके कारण मुसलमान इन प्रान्तों में अल्पसंख्यक न हो जाएं.
  7. सभी धार्मिक सम्प्रदायों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी दी जाए और पूजा, आचरण, प्रचार-प्रसार पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जाए.
  8. किसी विधानमंडल में ऐसे विधेयक न पेश किये जाएं जिसका सम्बन्ध किसी सम्प्रदाय विशेष के लिए हानिकारक हो. यदि उक्त सम्प्रदाय के 3/4 सदस्य विधेयक के सम्बन्ध में अपनी सहमति प्रकट न करें तो उसे पेश नहीं किया जाए.
  9. सिंध को बम्बई प्रांत से अलग कर स्वतंत्र प्रांत का दर्जा दिया जाए.
  10. उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत और बलूचिस्तान में अन्य प्रान्तों की तरह सांविधानिक सुधार आरम्भ होना चाहिए.
  11. अन्य भारतीयों की तरह मुसलमानों को कुशलता के आधार पर सरकारी संस्थाओं और स्वायत्तशासी निकायों में नौकरी करने का उचित अवसर प्राप्त हो.
  12. भावी संविधान में मुसलमानों के धर्म, संस्कृति, भाषा और शिक्षा के विकास की समुचित व्यवस्था की जाए.
  13. केंद्रीय और प्रांतीय मंत्रिमंडलों में मुसलमानों को 1/3 प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए.
  14. केन्द्रीय सभा तभी संविधान में संशोधन कर सकती है जब ऐसा करने के लिए उसे भारतीय संघ के घटक-राज्यों से स्वीकृति मिल चुकी हो।

कांग्रेस ने चौदह सूत्री को निरर्थक कहकर ख़ारिज कर दिया. नेहरू कमेटी के सचिव जवाहरलाल नेहरू ने जिन्ना की इस मांग को हास्यास्पद 14 अंक कहा था. गांधी जी हिंदू-मुस्लिम प्रतिनिधित्व पर एक समझौते के पक्ष में थे उन्होंने कांग्रेस से देश में वैकल्पिक फॉर्मूला तैयार होने तक मुसलमानों के लिए सीटों के आरक्षण पर अपनी प्रतिज्ञा पर क़ायम रहने को कहा.

इस मामले में मोतीलाल नेहरू ने गांधी जी से हिंदू महासभा को मुख्य मुस्लिम मांगों पर सहमति हासिल करने का आग्रह किया ताकि संपूर्ण नेहरू रिपोर्ट मुस्लिम लीग द्वारा अपनाई जा सके. गांधी जी ने मोतीलाल नेहरू को लिखा – ‘यह कैसे किया जा सकता है या किया जाना चाहिए, यह आप ही बेहतर जानते हैं. इस मामले में मेरा दिमाग़ चक्कर खा रहा है, वातावरण इतना धूमिल है कि मैं स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रहा हूं.’

2 मार्च 1931 को दिल्ली में जमीयत उल हिंद के सम्मेलन में गांधी जी पहुंच गए और उन्होंने अपने भाषण में कहा कि एक कांग्रेसी और एक हिंदू के रूप में वह कह रहे हैं कि वह मुसलमानों को वह देना चाहता हूं जो वे चाहते हैं. वह बनिया की तरह काम नहीं करना चाहते. वह मुसलमानों के सम्मान के लिए सब कुछ त्याग सकते हैंं.

इसके साथ उन्होंने यह भी कि वह चाहते हैं कि मुसलमान जो कुछ भी चाहते हैं उसे एक काग़ज़ पर लिख दें और वह इससे सहमत हो जाएंगे. इसके बाद उन्होंने कांग्रेस से आग्रह किया कि भारत को ‘एक क़ौम’ बनाये रखने के लिए क़ीमत के रूप में मुसलमान जो कुछ भी चाहते हैं उसे स्वीकार कर लिया जाए. लेकिन, गांधी जी के विचारों को अनसुना कर दिया गया.

गांधी जी के इन इक़दाम से महासभा में यह आशंका व्याप्त हो गयी थी कि गांधी जी जिन्ना के नेतृत्व में मुसलमानों की साज़िश का शिकार हो जायेंगे और उनकी मांगें स्वीकार कर लेंगे. 23 मार्च 1931 (जिस दिन भगत सिंह व उनके साथियों को फांसी पर चढ़ाया गया) को एक आपातकालीन बैठक में, महासभा ने गांधी जी के सौहार्दपूर्ण भाषणों में निहित ख़तरे पर चर्चा की गयी और यह चेतावनी दी गई कि यदि गांधी जी मुसलमानों के आगे झुक गए तो वह देश में संपूर्ण हिंदू समर्थन खो देंगे.

भाई परमानंद के नेतृत्व में महासभा के एक प्रतिनिधिमंडल ने दिल्ली में गांधी जी से मुलाकात की और और चेताया कि यदि उन्होंने मुसलमानों को रियायतें दीं, तो महासभा देश में हर प्रकार से कड़ा विरोध करेगी.

अंत में, कांग्रेस ने मोतीलाल नेहरू द्वारा प्रस्तावित संविधान को त्याग दिया और यह विफलता ऐसी थी जिसने अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व के मामले को इस तरह उलझा दिया जिसमें ब्रिटिश सरकार के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के रास्ते खुलते चले गए. इसके बाद किसी भी भारतीय पक्ष द्वारा हिंदू-मुस्लिम प्रतिनिधित्व पर समझौते की कोई पहल नहीं की गयी.

ब्रिटिश साम्राज्य इन विफलताओं पर प्रसन्न था. भारत का भावी संवैधानिक स्वरूप, अल्पसंख्यकों के हित, उनकी सुरक्षा सहित हिंदू-मुस्लिम प्रतिनिधित्व की समस्या व दीगर अमूर पर बातचीत के लिए ज़रूरी था कि तमाम संबद्ध वर्गों के मध्य मध्यस्थता के लिए गोलमेज़ सम्मेलनों को आयोजित किया जाए.

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