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नफरत परोसती पत्रकारिता : एक सवाल खुद से

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बरिष्ठ पत्रकार संजय सिन्हा ने सड़ चुकी पत्रकारिता का बेहद ही मार्मिक उदाहरण पेश किया है कि भारतीय पत्रकारिता समाज में नफरत का जिस प्रकार संचार कर रहा है, उसकी आंच में अब वह खुद झुलसने लगा है. अगर वक्त रहते सड़ चुकी पत्रकारिता अपना इलाज नहीं कर सकता है तो एक दिन खुद को खत्म कर लेगा. आज पत्रकारिता अपनी चाटूकारिता, दलाली, गलत तथ्यों को परोसने के कारण जिस तेजी के साथ अपनी विश्वसनीयता को खत्म किया है, वह इतिहास में अद्वितीय है. यह आलेख पत्रकारिता जगत को सोचने पर मजबूर करती है.

बात उन दिनों की है जब हम न्यूज़ चैनल अंतरिक्ष से आने वाले एलियंस की कहानी दिखलाया करते थे. कभी अंतरिक्ष से कोई यान आता और गाय उड़ा कर ले जाता. कभी किसी का पुनर्जन्म हो जाता. हम टीवी वाले सारा दिन ऐसी कहानी रगड़ते रहते थे. हमारे पास पुनर्जन्म के दस जन्मों का लेखा-जोखा होता और हम इस बात पर खुश होते कि आज हमने खबरों के संसार में बाजी मार ली है. हम सब टीवी वालों में होड़-सी होती कि किसके पास क्या अनूठा है. नाग-नागिन प्रेम, किले में प्रेत की कहानी की तलाश हम सब दिन रात करते थे.

टीवी खबरों का संसार धीरे-धीरे उससे आगे बढ़ा और फिर पहुंच गया उस दौर में जब हम ट्यूबलाइट खाने वाले, बालों से ट्रक खींचने वाले, ब्लेड चबाने वाले धुरंधर ढूंढ कर लाने लगे. ये दौर खली के दौर से पहले का था. बाद में तो जब खली का दौर आया तो पूरी मीडिया टीम अमेरिका तक की यात्रा कर आई और मुझे याद है कि पहली बार हमारे एक साथी कैसे मेरठ से डब्लू डब्लू एफ की कुश्ती की सीडी लेकर आए थे कि ‘संजय सर, इसमें एक भारतीय पहलवान है जो एक अंग्रेज को पटक-पटक कर मारेगा.’ हमने उसे भी खबर के रूप में परोसा, इस सच को जानते हुए भी ये कुश्ती फर्ज़ी है. हमारी खूब वाहवाही हुई. खैर, ये सोचने वाला विषय हो सकता है कि संजय सिन्हा आज अपने ही संसार को क्यों कोस रहे हैं.

आपको याद होगा कि मैंने आपको एक बार अपने उस साथी की कहानी सुनाई थी जो ऑफिस आकर रो रहा था कि यार, आज मेरा बेटा घर में एक बल्ब तोड़ कर अपनी बहन को खाने के लिए कह रहा था. वो तो समय पर मैंने ये देख लिया, नहीं आज मेरी बेटी का क्या होता, मैं सोच भी नहीं सकता. वो अपना सिर पीट रहा था कि उसी ने ये खबर टीवी पर दिखलाई थी कि एक आदमी सुबह नाश्ते में बल्ब तोड़ कर चबाता है. खबर दिखलाते हुए वो बहुत उत्साहित था, लेकिन वो तब ये नहीं सोच पाया था कि उसके घर में उसी का बेटा ये प्रयोग अपनी छोटी बहन पर करने लगेगा. बच्चे ने टीवी पर देखा और मान लिया कि बल्ब तोड़ कर खाया जा सकता है.

मैंने जब ये कहानी सुनी थी तो अपना सिर पीट लिया था. मैं सोचने लगा था कि हम बिना सोचे-समझे जब कुछ टीवी पर दिखला देते हैं तो कितने लोगों पर उसका क्या असर पड़ता होगा, ये सोचने की ज़हमत नहीं उठाते. पर कल मेरे एक साथी ने मुझसे अपनी एक ऐसी सच्ची कहानी साझा की कि मेरा सिर चकरा गया है. मैं भारी दुविधा में पड़ गया हूं. खुद को दोषी मानने लगा हूं. अपने आप को कोसने लगा हूं.

मेरे साथी ने मुझसे कहा कि कुछ दिन पहले उसके सात साल के बेटे का अपनी ही सोसाइटी में खेलते हुए एक बच्चे से झगड़ा हो गया. मेरे साथी के बेटे ने झगड़े के दौरान दूसरे बच्चे से कहा कि तुम मुसलमान हो, तुम पाकिस्तान चले जाओ.

बच्चा ये सुन कर रोने लगा. वो अपने घर गया और अपनी मम्मी से उसने कहा कि मिश्रा अंकल के बच्चे ने उससे ऐसा कहा है. मां तुरंत मेरे साथी के घर गई. उसने कहा कि मिश्रा जी, आपके बेटे ने आज मेरे बेटे से ऐसी बात कही है, मेरा बेटा बहुत रो रहा है. मेरे साथी भारी सोच में पड़ गए. वो सोचने लगे कि उनके सात साल के बेटे ने ये बात सीखी कहां से ? आजकल स्कूल में ऐसी बातें हो रही हैं क्या ? मेरे साथी ने महिला से माफी मांगी और कहा कि वो बेटे को समझाएंगे.

बच्चा जब खेल कर घर आया तो मेरे साथी ने उसे पास बिठा कर बहुत धीरे से पूछा कि तुमने अपने दोस्त से ऐसी बात क्यों कही ? उसने समझाने वाले लहजे में ये भी कहा कि बेटा, ये बातें गंदी होती हैं. वो तुम्हारा दोस्त है. बेटा चुपचाप पापा की बातें सुनता रहा. जब बात पूरी हो गई तो उसने धीरे से कहा कि पापा, कल टीवी पर आप ही दिखला रहे थे, जिसमें एक आदमी किसी से कह रहा था कि आपको यहां नहीं अच्छा लगता तो पाकिस्तान चले जाइए.

यकीन कीजिए, मेरा साथी मुझसे ये कहते हुए सुबक पड़ा था और इस बात को सुनते हुए संजय सिन्हा के कान गर्म हो गए थे. मन में बार-बार ये ख्याल आ रहा था कि भले ये बात किसी और ने टीवी पर किसी के लिए कही होगी, पर न्यूज़ रूम के स्टुडियो में उसके कहे को आसमान में भेज कर फिर उसे आसमान से घर-घर पहुंचाने का गुनाह तो हमने किया है.

मेरा साथी बहुत परेशान होकर मुझसे इस बात की चर्चा कर रहा था कि हमने सब कुछ बांट दिया है. कुछ अनजाने में, कुछ जानबूझ कर. बिना ये सोचे कि इसका असर क्या होगा. इसी कड़ी में उसने मुझसे एक और कहानी साझा की. उसने बताया कि संजय जी, आपको पता है कि मेरा नाम मनीष है. मैं ब्राह्मण हूं. पर हमने कभी जाति, धर्म के बारे में नहीं सोचा. हमारी सोच में तब किसी ने ये फर्क नहीं बोया. उसने बताया कि आज मैं आपको एक और बात बता रहा हूं. मेरा नाम मनीष है लेकिन घर में मेरे पुकार का नाम मुजीब है. अब सोचिए कि एक ब्राह्मण के बेटे को घर में लोग मुजीब बुलाते हैं और किसी को अटपटा नहीं लगता. मैं भी हैरान था कि मनीष का नाम मुजीब क्यों ?

मनीष ने बताया कि जिस दिन उसका जन्म हुआ था, ढाका में शेख मुजीबुर्र रहमान की जेल से रिहाई हुई थी. जन्म के समय ही ये ख़बर आई थी कि मुजीब छूट गए तो चाचा ने कहा कि घर में मुजीब आया है. बस यही नाम हो गया. मां आज भी मुजीब बुलाती है. पूरा घर, पूरा गांव मुजीब बुलाता है. पर किसी के मन में धर्म को लेकर विषाद नहीं. पर अब ये क्या हो गया है ? क्यों हो गया है ?

हम दोनों चाय के साथ बात करते-करते बहुत देर के लिए खामोश हो गए. मुझे नहीं पता कि इन सब बातों के लिए दोषी कौन है, ज़िम्मेदार कौन है. पर अपना दोष और अपनी ज़िम्मेदारी तो हम दोनों मान ही रहे थे. समझ ही रहे थे कि बल्ब तोड़ कर खाने की खबर हम दिखलाएंगे तो दूसरों के बच्चे ही बल्ब खाएंगे ऐसा नहीं होगा, एक दिन बल्ब हमारे बच्चे भी खाएंगे और फिर हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि दोषी कौन ?

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