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छत्तीसगढ़ः आदिवासियों के साथ फर्जी मुठभेड़ और बलात्कार का सरकारी अभियान

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बंधुवर, इस बार दो साल पुराना आर्टिकल (अभी यह 11 साल पुराना आर्टिकिल है) आप सभी के लिये. ये रिपोर्ट छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की त्रासदी बखान करती है लेकिन, इस रिपोर्ट का दोहरा महत्व है. पहला, यह रिपोर्ट उस बहस को पारदर्शी बनाती है, जो टीवी और प्रिंट को लेकर लगातार छिड़ी हुई है. इस रिपोर्ट को कवर करने के लिये और दिखाने के लिये न्यूज चैनल में स्पेस नहीं था. दूसरा टीवी में काम करते हुये मैंने इस रिपोर्ट को प्रिंट के लिये कवर किया, जिस पर हिन्दी प्रिंट का रामनाथ गोयनका एक्सलेन्स अवार्ड मुझे 13 अप्रैल 2009 को दिया गया. आप पहले रिपोर्ट पढ़ें….चर्चा करुंगा जरुर लेकिन अगली पोस्ट में – पुण्य प्रसून वाजपेयी


1 साल में सुरक्षाकर्मियों के हाथों मारे गए आदिवासी


नाम, उम्र, गांव, तिथि


सोडी कोसा, 33, गोरनम, 15 मई
उइके सन्नू, 50, कोत्रापाल, 1 जुलाई
बाजाम मंडा, 55, कोत्रापाल, 1 जुलाई
माडबी विज्ïजा, केशकुत्तुल, 11 जुलाई
सोमार, पूसलक्का, जुलाई
मनकू, मरकापाल, जुलाई
वोक्काल, बेलनार, जून
मडकाम कुमाल, हालवूर. 9 अगस्त
लेखामी बुधराम, 35, कोत्रापाल, 11 अगस्त
आटम बोडी, 30, कोत्रापाल, 11 अगस्त
तामोरामा, 35, कर्रेमरका, 16 अगस्त
लेखम लक्कू, 35, जांगला, 27 अगस्त
माडवी पाकलू, 35, गोंगला, 27 अगस्त
बोगमी सन्नु, 18, मुण्डेर, 28 अगस्त
तामो सुखराम, 20, डुमरी परालनार, 1 सितंबर
बोगामी कोटलाल, 40, दोरूम, 1 सितंबर
बोगामी सोमवारी, 36, दोरूम, 1 सितंबर
कड़ती बप्पाल, 45, पुल्लादी, 1 सितंबर
हेमला रेकाल, 50, पुल्लादी, 1 सितंबर
पूनेम बुधू, पुंबाड़, 1 सितंबर
कारम पाण्डु, 45, ईरिल, 2 सितंबर
कड़ती चिन्ना, 40, अरियाल, 2 सितंबर
कड़ती सन्नु, 35, अरियाल, 2 सितंबर
कड़ती कमलू, 35, अरियाल, 2 सितंबर
कड़ती आपतू, 40, अरियाल, 2 सितंबर
कड़ती रामाल, 45, अरियाल, 2 सितंबर
कड़ती कुमाल, 12, अरियाल, 2 सितंबर
उजी मसाराम, 40, अरियाल, 2 सितंबर
उजी जयराम, 35, अरियाल, 2 सितंबर
एमला सुक्कु, 40, अरियाल, 2 सितंबर
कड़ती बधरू, 35, अरियाल, 2 सितंबर
माडवी मेस्सा, 35, अरियाल, 2 सितंबर
कोरसा संतो, 20, पुल्गट्टा, 2 सितंबर
वेद्दो जोगा, कोंडम, 3 सितंबर
माडवी मेस्सा, 35, हिंडरी, 3 सितंबर
लेखम लखमू, 50, पोट्टेम/पोट्टेनार, 5 सितंबर
माडवी सोमू, 35 पोट्टेम/पोट्टेनार, 5 सितंबर
आलम महदेव, 30, पोट्टेम/पोट्टेनार, 5 सितंबर
मोडियम बोड्डल, 25, पोट्टेम/पोट्टेनार, 5 सितंबर
मोडियम सुदरू, मनकेल, 15 सितंबर
एंडीवु गुल्लू, 22, गोंगला, 20 सितंबर
पोट्टम सोनू, 20, गोंगला, 20 सि तंबर
कोरसा संतो, 20, गोंगला, 20 सितंबर
माडवी लक्ष्मण, पल्लेवाया, 22 सितंबर
कोरसा सुक्कू, मनकेल, 25 सितंबर
पूनम काण्डाल, मनकेल, 25 सितंबर
एमला कोवा, मनकेल, 3 अक्टूबर
वाडसे सोमू, परालनार, 9 अक्टूबर
मडकाम, चन्नू परालनार, 5 अक्टूबर
कड़ती कमलू, मुण्डेर, 10 अक्टूबर




छत्तीसगढ़ः आदिवासियों के साथ फर्जी मुठभेड़ और बलात्कार का सरकारी अभियान

प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित इस रिपोर्ट का शीर्षक है- छत्तीसों मुठभेड़, मरते आदिवासी. देश के मूल निवासी आदिवासी को अगर भूख के बदले पुलिस की गोली खानी पड़े; आदिवासी महिला को पुलिस-प्रशासन जब चाहे, जिसे चाहे, उठा ले और बलात्कार करे, फिर रहम आए तो ज़िन्दा छोड़ दे या उसे भी मार दे; और यह सब देखते हुए किसी बच्चे की आंखों में अगर आक्रोश आ जाए तो गोली से छलनी होने के लिए उसे भी तैयार रहना पड़े; फिर भी कोई मामला अदालत की चौखट तक न पहुंचे, थानों में दर्ज न हो तो क्या यह भरोसा जताया जा सकता है कि हिन्दुस्तान की जमीं पर यह संभव नहीं है ? जी ! दिल्ली से एक हज़ार किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाके का सच यही है लेकिन राज्य की नज़र में ये इलाके आतंक पैदा करते हैं, संसदीय राजनीति को ठेंगा दिखाते हुए विकास की गति रोकना चाहते हैं. हिंसक कार्रवाइयों से पुलिस प्रशासन को निशाना बनाते हैं. सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाकर व्यवस्था को खारिज कर विकल्प की बात करते हैं. इस नक्सली हिंसा को आदिवासी मदद करते हैं तो उन्हें राज्य कैसे बर्दाश्त कर सकता है ? लेकिन राज्य या नक्सली हिंसा की थ्योरी से हटकर इन इलाकों में पुरखों से रहते आए आदिवासियों को लेकर सरकार या पुलिस प्रशासन का नज़रिया आंतरिक सुरक्षा के नाम पर आदिवासियों को नक्सली करार देकर जिस तरह की पहल करता है, वह रोंगटे खड़े कर देता है.



ठीक एक साल पहले छत्तीसगढ़ के सरगुजा ज़िले की पुलिस ने आदिवासी महिला लेधा को सीमा के नाम से गिरफ्तार किया. पुलिस ने आरोप लगाया कि मार्च, 2006 में बम विस्फोट के ज़रिए जिन तीन केंद्रीय सुरक्षा बल के जवानों की मौत हुई, उसके पीछे सीमा थी. अप्रैल 2006 में जिस वक्त सीमा को गिरफ्तार किया गया, वह गर्भवती थी. सीमा का पति रमेश नागेशिया माओवादियों से जुड़ा था. कोर्ट ने सीमा को डेढ़ साल की सज़ा सुनाई. सीमा ने जेल में बच्चे को जन्म दिया, जो काफी कमज़ोर था. अदालत ने इस दौरान पुलिस के कमज़ोर सबूत और हालात देखते हुए सीमा को पूरे मामले से बरी कर दिया, यानी मुकदमा ही खत्म कर दिया.

सीमा बतौर लेधा नक्सली होने के आरोप से मुक्त हो गई लेकिन पुलिस ने लेधा पर दबाव बनाना शुरू कर दिया कि वह अपने पति रमेश नागेशिया पर आत्मसमर्पण करने के लिए दबाव बनाए. पुलिस ने नौकरी और पैसा देने का लोभ भी दिया. लेधा ने भी अपने पति को समझाया और कमज़ोर बेटे का वास्ता दिया कि आत्मसमर्पण करने से जीवन पटरी पर लौट सकता है. आखिरकार रमेश आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार हो गया.

28 मई, 2006 को सरगुजा के सिविलडाह गांव में आत्मसमर्पण की जगह ग्राम पंचायत के सचिव का घर तय हुआ. सरगुजा के एसपी सीआरपी कलौरी लेधा को लेकर सिविलडाह गांव पहुंचे. कुसुमी इलाके से अतिरिक्त फौज भी उनके साथ गई. इंतज़ार कर रहे नरेश को पुलिस ने पहुंचते ही भरपूर मारा. इतनी देर तक कि बदन नीला-काला पड़ गया. फिर एकाएक लेधा के सामने ही आर्मड् फोर्स के असिस्टेंट प्लाटून कमांडर ने नरेश की कनपटी पर रिवाल्वर लगा कर गोली चला दी. नरेश की मौके पर ही मौत हो गई. गोद में बच्चे को लेकर ज़मीन पर बैठी लेधा चिल्ला भी नहीं पाई. वह डर से कांपने लगी. लेधा को पुलिस शंकरगढ़ थाने ले गई, जहां उसे डराया-धमकाया गया कि कुछ भी देखा हुआ, किसी से कहा तो उसका हश्र भी नरेश की तरह होगा. लेधा खामोश रही.

लेकिन तीन महीने बाद ही दशहरे के दिन पुलिस लेधा और उसके बूढ़े बाप को गांव के घर से उठाकर थाने ले गई, जहां एसपी कलौरी की मौजूदगी में और बाप के ही सामने लेधा को नंगा कर बलात्कार किया गया. फिर अगले दस दिनों तक लेधा को लॉकअप में सामूहिक तौर पर हवस का शिकार बनाया जाता रहा. इस पूरे दौर में लेधा के बाप को तो अलग कमरे में रखा गया, मगर लेधा का कमज़ोर और न बोल सकने वाला बेटा रंजीत रोते हुए सूनी आंखों से बेबस-सा सब कुछ देखता रहा. लेधा बावजूद इन सबके, मरी नहीं. वह ज़िंदा है और समूचा मामला लेकर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट भी जा पहुंची. जनवरी, 2007 में बिलासपुर हाईकोर्ट ने मामला दर्ज भी कर लिया. पहली सुनवाई में सरकार की तरफ से कहा गया कि लेधा झूठ बोल रही है.

दूसरी सुनवाई का इंतज़ार लेधा, उसके मां-बाप और गांववालों को है कि शायद अदालत कोई फैसला उनके हक में यह कहते हुए दे दे कि अब कोई पुलिसवाला किसी गांववाले को नक्सली के नाम पर गोली नहीं मारेगा, इज़्ज़त नहीं लूटेगा. लेधा या गांववालों को सिर्फ इतनी राहत इसलिए चाहिए क्योंकि इस पूरे इलाके का यह पहला मामला है जो अदालत की चौखट तक पहुंचा है. लेधा जैसी कई आदिवासी महिलाओं की बीते एक साल में लेधा से भी बुरी गत बनाई गई. लेधा तो ज़िंदा है, कइयों को मार दिया गया. बीते एक साल के दौरान थाने में बलात्कार के बाद हत्या के छह मामले आए. पेद्दाकोरमा गांव की मोडियम सुक्की और कुरसम लक्के, मूकावेल्ली गांव की वेडिंजे मल्ली और वेडिंजे नग्गी, कोटलू गांव की बोग्गाम सोमवारी और एटेपाड गांव की मडकाम सन्नी को पहले हवस का शिकार बनाया, फिर मौत दे दी गई. मडकाम सन्नी और वेडिंजे नग्गी तो गर्भवती थीं. ये सभी मामले थाने में दर्ज भी हुए और मिटा भी दिए गए. मगर यह सच इतना सीमित भी नहीं है. महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना किसी एक गांव की नहीं है, बल्कि दर्जन भर ऐसे गांव हैं. कोण्डम गांव की माडवी बुधरी, सोमली और मुन्नी, फूलगट्टड्ढ गांव की कुरसा संतो और कडती मुन्नी, कर्रेबोधली गांव की मोडियम सीमो और बोग्गम संपो, पल्लेवाया गांव की ओयम बाली, कर्रेमरका गांव की तल्लम जमली और कडती जयमती, जांगला गांव की कोरसा बुटकी, कमलू जय्यू और कोरसा मुन्नी, कर्रे पोन्दुम गांव की रुकनी, माडवी कोपे और माडवी पार्वती समेत तेइस महिलाओं के साथ अलग-अलग थाना क्षेत्रों में बलात्कार हुआ. इनमें से दो महिलाएँ गर्भवती थीं. दोनों के बच्चे मरे पैदा हुए. नीलम गांव की बोग्गम गूगे तो अब कभी भी मां नहीं बन पाएगी.




सवाल सिर्फ महिलाओं की त्रासदी या आदिवासियों के घर में लड़की-महिला के सुरक्षित होने भर का नहीं है. दरअसल आदिवासी महिला के ज़रिए तो पुलिस-सुरक्षाकर्मियों को कडक (आतंक होने) का संदेश समूचे इलाके में दिया जाता है. यह काम तेंदूपत्ता जमा कराने वाले ठेकेदार करते हैं. चूंकि तेंदूपत्ता को खुले बाज़ार में बेचकर ठेकेदार लाखों कमाते हैं, इसलिए वे सुरक्षाकर्मियों के लिए नक्सलियों के बारे में जानकारी देने का सूत्र भी बन जाते हैं. नक्सलियों की पहल की कोई भी सूचना इलाके में तैनात सुरक्षाकर्मियों के लिए भी उपलब्धि मानी जाती है, जिससे वे बड़े अधिकारियों के सामने सक्षम साबित होते हैं और यह पदोन्नति का आधार बनता है. इलाके में तेंदूपत्ता ठेकेदार की खासी अहमियत होती है. एक तरफ आदिवासियों के लिए छह महीने का रोज़गार तो दूसरी तरफ पुलिस के लिए खुफियागिरी. ज़्यादातर मामलों में जब ठेकेदार को लगता है कि तेंदूपत्ता को जमा करने वाले आदिवासी ज़्यादा मज़दूरी की मांग कर रहे हैं तो वह किसी भी आदिवासी महिला के संबंध नक्सलियों से होने की बात पुलिस-जवान से खुफिया तौर पर कहता है और अंजाम होता है बलात्कार या हत्या, उसके बाद ठेकेदार की फिर चल निकलती है. तेंदूपत्ता आदिवासियों के शोषण और ठेकेदार-सरकारी कर्मचारियों के लिए मुनाफे का प्रतीक भी है. खासकर जब से अविभाजित मध्यप्रदेश सरकार ने तेंदूपत्ता के राष्ट्रीयकरण और सहकारीकरण का फैसला किया तब से शोषण और बढ़ा. बोनस के नाम पर सरकारी कर्मचारी हर साल हर ज़िले में लाखों रुपये डकार लेते हैं. बोनस की रकम कभी आदिवासियों तक नहीं पहुंचती. वहीं मज़दूरी का दर्द अलग है. महाराष्ट्र में सत्तर पत्तों वाली तेंदूपत्ता की गड्डी की मज़दूरी डेढ़ रुपये मिलती है, वहीं छत्तीसगढ़ में महज 45 पैसे ही प्रति गड्डी दिए जाते हैं. कई गांवों में सिर्फ 25 पैसे प्रति गड्डी ठेकेदार देता है. ऐसे में, कोई आदिवासी अगर विरोध करता है, तो इलाके में तैनात सुरक्षाकर्मियों को उस आदिवासी या उस गांववालों के संपर्क-संबंध नक्सलियों से होने की जानकारी खुफिया तौर पर ठेकेदार पहुंचाता है. उसके बाद हत्या, लूट, बलात्कार का सिलसिला चल पड़ता है.

यह सब आदिवासी बहुल इलाकों में कैसे बदस्तूर जारी है, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि पिछले साल जुलाई से अक्टूबर के दौरान पचास से ज़्यादा आदिवासियों को सुरक्षाकर्मियों ने निशाना बनाया. दर्जनों महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना हुई. गांव जलाए गए. मवेशियों को खत्म किया गया. एक लिहाज से समूचे इलाके को उजाड़ बनाने की कोशिश भी की जाती रही है. यानी, एक तरफ ठेकेदार रणनीति के तहत आदिवासियों को जवानों के सामने झोंकता है, तो दूसरी तरफ विकास के गोरखधंधे में ज़मीन की ज़रूरत सरकार को महसूस होती है, तो वह भी ज़मीन से आदिवासियों को बेदखल करने की कार्रवाई इसी तरह कई-कई गांवों में करती है. इसमें एक स्तर पर नक्सलियों से भिडऩे पहुंचे केन्द्रीय सुरक्षा बल के जवान होते हैं तो दूसरे स्तर पर राज्य की पुलिस. इन इलाकों में ज़मीन हथियाने के लिए आदिवासियों के हाट बाज़ार तक को प्रतिबंधित करने से स्थानीय पुलिस-प्रशासन नहीं हिचकते.

जुलाई से अक्टूबर, 2006 के दौरान इसी इलाके में 54 आदिवासी पुलिस की गोली से मारे गए, जिनमें सबसे ज़्यादा सितंबर में इकतीस मारे गए. इनमें से 16 आदिवासियों का रोज़गार गारंटी योजना के तहत नाम पहले भी दर्ज था, अब भी है. इसके अलावा कोतरापाल, मनकेवल, मुंडेर, अलबूर, पोट्टयम, मज्जीमेडरी, पुल्लुम और चिन्नाकोरमा समेत 18 गांव ऐसे हैं जहां के ढाई सौ से ज़्यादा आदिवासी लापता हैं. सरकार की अलग-अलग कल्याणकारी योजनाओं में इनमें से 128 आदिवासियों के नाम अब भी दर्ज हैं. पैसा बीते छह महीने से कागज़ पर इनके घर पहुंच रहा है. हस्ताक्षर भी कागज़ पर हैं. लेकिन ये आदिवासी हैं कहां ? कोई नहीं जानता. पुलिस बंदूक थामे सीधे कहती है कि उनका काम आदिवासियों को तलाशना नहीं, कानून-व्यवस्था बरकरार रखना है.



मगर कानून-व्यवस्था कैसे बरकरार रखी जाती है, इसका नमूना कहीं ज़्यादा त्रासद है. 21 जुलाई को पोन्दुम गांव में दो किसानों के घर जलाए गए. पल्लेवाया गांव में लूटपाट और तोडफ़ोड़ की गई. तीन आदिवासी महिलाओं समेत दस लोगों को गिरफ्तार किया गया. 22 जुलाई को पुलिस ने मुण्डेर गांव पर कहर बरपाया. मवेशियों को मार दिया गया या सुरक्षाकर्मी पकड़ ले गए. दस घरों में आग लगा दी गई. गांववालों ने गांव छोड़ बगल के गांव फूलगट्ट में शरण ली.

25 जुलाई को फूलगट्ट गांव को निशाना बनाया गया. पचास आदिवासियों को पकड़कर थाने ले जाया गया. 29 जुलाई को कर्रेबोदली गांव निशाना बना. आदिवासियों के साथ मारपीट की गई. पंद्रह आदिवासियों को गिरफ्तार किया गया. अगस्त के पहले हफ्ते में मजिमेंडरी गांव को निशाना बनाया गया. सुअरबाड़ा और मुर्गाबाड़ा को जला दिया गया. एक दर्जन आदिवासियों को पकड़कर थाने में कई दिनों तक प्रताड़ित किया गया. इसी हफ्ते फरसेगढ़ थाना क्षेत्र के कर्रेमरका गांव के कई आदिवासियों (महिलाओं समेत) को गिरफ्तार कर अभद्र व्यवहार किया गया. 11 अगस्त को कोतरापाल गांव में पुलिस ने फायरिंग की. आत्म बोडी और लेकर बुधराम समेत तीन किसान मारे गए. पुलिस ने तीनों को नक्सली करार दिया और एनकाउंटर में मौत बताई. 12 अगस्त को कत्तूर गांव के दो किसानों को कुटरू बाज़ार में पुलिस ने पकड़ा. बाद में दोनों के नाम एनकाउंटर में थाने में दर्ज किए गए. 15 अगस्त को जांगला गांव में पांच किसानों के घरों में तेंदूपत्ता ठेकेदार ने आग लगवाई. मामला थाने पहुंचा तो ठेकेदार को थाने ने ही आश्रय दे दिया यानी मामला दर्ज ही नहीं किया गया. जो दर्ज हुआ उसके मुताबिक नक्सलियों के संबंध जांगला गांव वालों से है.

अगस्त के आखिरी हप्ते में डोलउल, आकवा, जोजेर गांव को निशाना बनाया गया. ईरिल गाव के सुक्कु किसान की जघन्य हत्या की गई. सिर अगले दिन पेड़ पर टंगा पाया गया. आदिवासी इतने दहशत में आ गए कि कई दिनों तक खेतों में जाना छोड़ दिया. इस घटना की कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई.

25 सितंबर को बीजापुर तहसील के मनकेल गांव में किसान-आदिवासियों के दर्जन भर से ज़्यादा घरों में आग लगाई गई. पांच महिला आदिवासी और दो बच्चों को पुलिस थाने ले गई, जिनका अब तक कोई अता-पता नहीं है. सितंबर के आखिरी हफ्ते में ही इन्द्रावती नदी में चार आदिवासियों के शव देखे गए. उन्हें किसने मारा और नदी में कब फेंका गया, इस पर पुलिस कुछ नहीं कहती. गांववालों के मुताबिक हाट-बाज़ार से जिन आदिवासियों को सुरक्षाकर्मी अपने साथ ले गए उनमें ये चार भी थे.

पांच अक्टूबर को बीजापुर तहसील के मुक्कावेल्ली गांव की दो महिला वेडिंजे नग्गी और वेडिंजे मल्ली पुलिस गोली से मारी गईं. अक्टूबर के पहले हप्ते में जेगुरगोण्डा के राजिम गांव में पांच महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ. इनके साथ पकड़े गए एक किसान की दो दिन बाद मौत हो गई, मगर पुलिस फाइल में कोई मामला दर्ज नहीं हुआ. इसी दौर में पुलिस की गोली के शिकार बच्चों का मामला भी तीन थानों में दर्ज किया गया. मगर मामला नक्सलियों से लोहा लेने के लिए तैनात पुलिसकर्मियों से जुड़ा था, तो दर्ज मामलों को दो घंटे से दो दिन के भीतर मिटाने में थानेदारों ने देरी नहीं की.

दो सितंबर, 2006 को नगा पुलिस की गोली से अडिय़ल गांव का 12 साल का कड़ती कुमाल मारा गया. तीन अक्टूबर, 2006 को 14 साल के राजू की मौत लोवा गांव में पुलिस की गोली से हुई. पांच अक्टूबर, 2006 को तो मुकावेल्ली गांव में डेढ़ साल के बच्चे को पुलिस की गोली लगी. 10 अक्टूबर, 2006 को पराल गांव में 14 साल का लड़का बारसा सोनू पुलिस की गोली से मरा. ऐसी बहुतेरी घटनाएं हैं जो थानों तक नहीं पहुंची है. इस सच की पारदर्शिता में पुलिस का सच इसी बीते एक साल के दौर में आधुनिकीकरण के नाम पर सामने आ सकता है. मसलन, सात सौ करोड़ रुपये गाडिय़ों और हथियारों के नाम पर आए. बारह सौ करोड़ रुपये इस इलाके में सड़क की बेहतरी के लिए आए. थानों की दीवारें मजबूत हों, इसलिए थानों और पुलिस गेस्टहाउसों की इमारतों के निर्माण के लिए सरकार ने डेढ़ सौ करोड़ रुपये मंजूर किए हैं, जबकि इस पूरे इलाके में हर आदिवासी को दो जून की रोटी मिल जाए, महज इतनी व्यवस्था करने के लिए सरकार का खुद का आंकड़ा है कि सौ करोड़ में हर समस्या का निदान हो सकता है लेकिन इसमें पुलिस प्रशासन, ग्राम पंचायत और विधायक-सांसदों के बीच पैसों की बंदरबांट न हो, तभी यह संभव है. हां, बीते एक साल में जो एक हज़ार करोड़ रुपये पुलिस, सड़क, इमारत के नाम पर आए, उनमें से सौ करोड़ रुपये का खर्च भी दिखाने-बताने के लिए इस पूरे इलाके में कुछ नहीं है.



सुरक्षा बंदोबस्त के लिए राज्य पुलिस के अलावा छह राज्यों के सुरक्षा बल यहां तैनात हैं. सरकार की फाइल में यइ इलाका कश्मीर और नगालैंड के बाद सबसे ज़्यादा संवेदनशील है इसलिए इस बंदोबस्त पर ही हर दिन का खर्चा राज्य के आदिवासियों की सालाना कमाई से ज़्यादा आता है. नब्बे फीसद आदिवासी गरीबी की रेखा से नीचे है. देश के सबसे गरीब आदिवासी होने का तमगा इनके माथे पर लगा है. सबसे महंगा सुरक्षा बंदोबस्त भी इसी इलाके में है. हर दिन का खर्चा सात से नौ करोड़ तक का है.

दरअसल, इतना महंगा सुरक्षा बंदोबस्त और इतने बदहाल आदिवासियों का मतलब सिर्फ इतना भर नहीं है. इसका महत्त्वपूर्ण पहलू छत्तीसगढ़ का सबसे समृद्ध राज्य होना है. देश का नब्बे फीसद टीन अयस्क यहीं पर मौजूद है. देश का 16 फीसद कोयला, 19 फीसद लौह अयस्क और पचास फीसद हीरा यहीं मिलता है. कुल 28 कीमती खनिज यहीं मौजूद हैं. इतना ही नहीं, 46,600 करोड़ क्यूबिक मीटर जल संसाधन का भंडार यहीं है और सबसे सस्ती-सुलभ मानव श्रमशक्ति तो है ही. बीते पांच सालों के दौरान (पहले कांग्रेस और फिर भाजपा) राज्य सरकार की ही पहल पर ऐसी छह रिपोर्टें आईं, जिनमें सीधे तौर पर माना गया कि खनिज संपदा से ही अगर आदिवासियों का जीवन और समूचा बुनियादी ढांचा जोड़ दिया जाए तो तमाम समस्याओं से निपटा जा सकता है. मगर आदिवासियों के लिए न तो खनिज संपदा का कोई मतलब है, न ही जंगल का. जो बुनियादी ढांचा विकास के नाम पर बनाया जा रहा है उसके पीछे रुपया कम, डॉलर ज़्यादा है. सुरक्षा बंदोबस्त का हाल यह है कि यहां तैनात ज़्यादातर पुलिसकर्मियों के घर अन्य प्रांतों में है, तो वे वहां के अपने परिवारों की सुख-सुविधाओं के लिए भी यहीं से धन उगाही कर लेना चाहते हैं. ऐसे में उनका जुड़ाव यहां से होता ही नहीं.

सामाजिक सरोकार जब एक संस्थान का दूसरे संस्थान या सुरक्षाकर्मियों का आम आदिवासियों से नहीं है और राज्य सरकार अगर अपनी पूंजी से ज़्यादा बाहरी पूजी-उत्पाद पर निर्भर है, तो हर कोई दलाल या सेल्समैन की भूमिका में ही मौजूद है. थाने से लेकर केन्द्रीयबल और कलेक्टर से लेकर विधायक तक सभी अपने-अपने घेरे में धन की उगाही के लिए सेल्समैन बन गए हैं. करोड़ों के वारे-न्यारे कैसे होते हैं, वह भी भुखमरी में डूबे आदिवासियों के इलाके में यह देशी-विदेशी कंपनियों की परियोजनाओं के खाके को देखकर समझा जा सकता है.

अमेरिकी कंपनी टेक्सास पावर जेनरेशन के ज़रिए राज्य में एक हज़ार मेगावाट बिजली उत्पाद का संयंत्र खोलने के सहमति पत्र पर हस्ताक्षर हुए यानी बीस लाख डॉलर राज्य में आएंगे. अमेरिका की ही वन इंकार्पोरेट कंपनी ने पचास करोड़ रुपये की दवा फैक्टरी लगाने पर समझौता किया. छत्तीसगढ़ बिजली बोर्ड ने इको (इंडियन फामर्स को-ऑपरेटिव लिमिटेड) के साथ मिलकर पांच करोड़ की लागत से सरगुजा में एक हज़ार मेगावाट का बिजली संयंत्र लगाने का समझौता किया, इसमें राज्य का हिस्सा 26 फीसद, तो इफको का 74 फीसद है. बिजली के निजीकरण के सवाल के बीच ऐसे संयंत्र का मतलब है कि भविष्य में यह भी किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को दस हज़ार करोड़ में बेच दिया जाएगा. टाटा कंपनी विश्व बैंक की मदद से दस हज़ार करोड़ की लागत से बस्तर में स्टील प्लांट स्थपित करने जा रही है. एस्सार कंपनी की भी सात हज़ार करोड़ की लागत से स्टील प्लांट लगाने पर सहमति बनी है. एस्सार कंपनी चार हज़ार करोड़ की लागत से कास्टिक पावर प्लांट की भी स्थापना करेगी. प्रकाश स्पंज आयरन लिमिटेड की रुचि कोयला खदान खोलने में है. उसे कोरबा में ज़मीन पसंद आई है. इसके अलावा एक दर्जन बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ खनिज संसाधनों से भरपूर ज़मीन का दोहन कर पचास हज़ार करोड़ रुपये इस इलाके में लगाना चाहती है. इसमें पहले कागज़ात तैयार करने में ही सत्ताधारियों की अंटी में पांच सौ करोड़ रुपये पहुंच चुके हैं.

कौडिय़ों के मोल में किस तरह का समझौता होता है इसका नजारा बैलाडिला में मिलता है. बैलाडिला खदानों से जो लोहा निकलता है उसे जापान को 160 रुपये प्रति टन (16 पैसे प्रति किलोग्राम) बेचा जाता है. वही लोहा मुंबई के उद्योगों के लिए दूसरी कंपनियों को 450 रुपये प्रति टन और छत्तीसगढ़ के उद्योगपतियों को सोलह सौ रुपये प्रतिटन के हिसाब से बेचा जाता है. ज़ाहिर है नगरनार स्टील प्लांट, टिस्को, एस्सार पाइपलाइन परियोजना (बैलाडिला से जापान को पानी के ज़रिए लौह-चूर्ण भेजने वाली परियोजना), इन सभी से बस्तर में मौजूद जल संपदा का क्या हाल होगा, इसका अंदाज़ा अभी से लगाया जा सकता है. अभी ही किसानों के लिए भरपूर पानी नहीं है. खेती चौपट हो रही है. किसान आत्महत्या को मजबूर है या पेट पालने के लिए शहरों में गगनचुंबी इमारतों के निर्माण में बतौर ईंट ढोने वाला मज़दूर बन रहा है या ईंट भट्टियों में छत्तीसगढ़वासी के तौर पर अपनी श्रमशक्ति सस्ते में बेचकर जीने को मजबूर है.

इन तमाम पहलुओं का आखिरी सच यही है कि अगर तमाम परियोजनाओं को अमली जामा पहनाया जाएगा तो राज्य की 60 फीसद कृषि योग्य ज़मीन किसानों के हाथ से निकल जाएगी यानी स्पेशल इकोनामिक जोन (एसईजेड) के बगैर ही 50 हज़ार एकड़ भूमि पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्ज़ा हो जाएगा. करीब दस लाख आदिवासी किसान अपनी ज़मीन गंवाकर उद्योगों पर निर्भर हो जाएंगे.




सवाल है कि इसी दौर में इन्हीं आदिवासी बहुल इलाके को लेकर केन्द्र सरकार की भी तीन बैठकें हुईं. चूंकि यह इलाका नक्सल प्रभावित है, ऐसे में केन्द्र की बैठक में आंतरिक सुरक्षा के मद्देनज़र ऐसी बैठकों को अंजाम दिया गया. नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्री-गृह सचिव और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की गृह मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री तक के साथ बैठक हुई. तीनों स्तर की बैठकों में इन इलाकों में तैनात जवानों को ज़्यादा आधुनिक हथियार और यंत्र मुहैय्या कराने पर विचार हुआ.

चूंकि नौ राज्यों के सभी नक्सल प्रभावित इलाके पिछड़े-गरीब के खांचे में आते हैं तो बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने पर ज़ोर दिया गया. हर राज्य के मुयमंत्री ने विकास का सवाल खड़ा कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की आवाजाही में आ रही परेशानियों का हवाला दिया और केन्द्र से मदद मांगी. तीनों स्तर की बैठकों में इस बात पर सहमति बनी कि विकास और उद्योगों को स्थापित करने से कोई राज्य समझौता नहीं करेगा यानी हर हाल में इन इलाकों में सड़कें बिछाई जाएंगी, रोशनी जगमग कर दी जाएगी जिससे पूंजी लगाने वाले आकर्षित होते रहें.

किसी बैठक में लेधा जैसी सैकड़ों आदिवासी महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार का ज़िक्र नहीं हुआ. किसी स्तर पर यह सवाल किसी ने नहीं उठाया कि आदिवासी बहुल इलाके में गोली खा कौन रहा है ? खून किसका बह रहा है ? किसी अधिकारी ने यह कहने की जहमत नहीं उठाई कि इतनी बड़ी तादाद में मारे जा रहे आदिवासी चाहते क्या हैं ? इतना ही नहीं, हर बैठक में नक्सलियों की संख्या बताकर हर स्तर के अधिकारियों ने यही जानकारी दी कि उनके राज्य में इस आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे पर काबू पाने के लिए कौन-कौन से तरीके अपनाए जा रहे हैं. हर बैठक में मारे गए नक्सलियों की संख्या का ज़िक्र ज़रूर किया गया. छत्तीसगढ़ की सरकार ने भी हर बैठक में उन आंकड़ों का ज़िक्र किया जिससे पुलिस की ’बहादुरी’ को मान्यता दिलाई जा सके. राज्य के सचिव स्तर से लेकर देश के गृहमंत्री तक ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि नक्सलियों को मारने के जो आंकड़े दिए जा रहे हैं उसमें किसी का नाम भी जाना जाए. उम्र भी पूछी जाए. थानों में दर्ज मामले के बारे में भी कोई जानकारी हासिल की जाए. सरकार की किसी बैठक या किसी रिपोर्ट में इसका ज़िक्र नहीं है कि जो नक्सली बताकर मारे गए और मारे जा रहे हैं, वे आदिवासी हैं.

एक बार भी यह सवाल किसी ने उठाने की जहमत नहीं उठाई कि कहीं नक्सलियों को ठिकाने लगाने के नाम पर फर्जी मुठभेड़ का सिलसिला तो नहीं जारी है ? कोई भी नहीं सोच पाया कि जंगल गांव में रहने वाले आदिवासियों से अगर पुलिस को मुठभेड़ करनी पड़ रही है तो अपने जंगलों से वाकिफ आदिवासी ही क्यों मारा जा रहा है ? अपने इलाके में वह कहीं ज़्यादा सक्षम है. सैकड़ों की तादाद में फर्जी मुठभेड़, आखिर संकेत क्या हैं ? ज़ाहिर है, इन सवालों का जवाब देने की न कोई मजबूरी है या ना ज़रूरत ही है सरकार को. मगर सरकार अगर यह कह कर बचती है कि पुलिसिया आतंक की ऐसी जानकारी उसके पास नहीं आई है और वह बेदाग है, तो संकट महज आदिवासियों को फर्जी मुठभेड़ में मारने या नक्सलियों का हवाला देकर आंतरिक सुरक्षा पुख्ता बनाने का नहीं है, बल्कि संकट उस लोकतंत्र पर है जिसका हवाला देकर सत्ता बेहिचक खौफ पैदा करने से भी नहीं कतराती.




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