[ भारतीय राजनीति के वर्तमान परिद्रश्य को समझने के लिए हमें अपने अतीत में झांकना होगा. एक ऐसा धुप्प अंधेरा अतीत, जिसमें झांकने के लिए इतिहास की रौशनी की कोई भूमिका नहीं है. यह एक ऐसा अतीत है, जिसे इतिहास ने नहीं, “मान्यताओं के प्रति हमारी अटूट आस्थाओं” ने बनाया है. इसी विषय पर प्रख्यात विचारक और राजनीतिक विश्लेषक विनय ओसवाल का गंभीर विश्लेषण ]
भारतीय राजनीति के वर्तमान परिदृश्य को समझने के लिए हमें अपने अतीत में झांकना होगा. एक ऐसा धुप्प अंधेरा अतीत, जिसमें झांकने के लिए इतिहास की रोशनी की कोई भूमिका नहीं है. यह एक ऐसा अतीत है, जिसे इतिहास ने नहीं, “मान्यताओं के प्रति हमारी अटूट आस्थाओं” ने बनाया है. हमारी मान्यता है कि “आत्मा” अजर-अमर है. शरीर विनाश को प्राप्त होता है. आत्मा कपडे की तरह इस शरीर को बदलती रहती है. जन्म-मृत्यु का यह चक्र अनादि-अनन्त है. मोक्ष प्राप्ति यानी पुनर्जन्म से मुक्ति हमारा अभीष्ट है. ब्रह्मा श्रष्टि के कर्त्ता, विष्णु पालक और महेश संहारक यानी उत्त्पत्ति-विकास-विनाश क्रमबद्ध है. काल इस चक्र को घुमाता रहता है. विष्णु प्रसन्न हो जाएं तो सुख की वर्षा और रुष्ट हो जाए तो जीवन नर्क के समान दुःखदाई बन जाता है. सभी भारतीय तत्व चिंतकों ने अपनी-अपनी मान्यताओं की नींव डाली और उसके प्रति आस्थावान समाज खड़े किये.
मोटे तौर पर वर्तमान परिदृश्य यह है कि हज़ारों वर्षों से मान्य और स्थापित इस “भारतीय तत्व दर्शन” में आस्था रखने वाले और नहीं रखने वाले ऐसे दो पक्ष हैं, जिसमें इस भू-भाग पर बसने वाले बंटे हुए हैं. उन लोगों का बाहुल्य है, जो इस दर्शन में आस्था रखते हैं और आस्था नहीं रखने वाले अल्पसंख्यक हैं. बहुसंख्यकों की “स्वघोषित प्रतिनिधि संस्था” चाहती है कि इस देश की राजनैतिक सत्ता की लगाम बहुसंख्यक हिन्दुओं के हाथों में रहे और शासन व्यवस्था ऐसी हो जो उनकी आस्थाओं का सम्मान करें. अल्पसंख्यकों के रहने खाने-कमाने, पढने-लिखने आदि से कोई आपत्ति नहीं, पर इस देश की राजनैतिक व्यवस्था में उनकी दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं.
किसी राजनैतिक दर्शन की प्राप्ति बिना समाज में गहरी पैंठ बनाए सम्भव नहीं है इसलिए वर्ष 1925 में पेशे से चिकित्सक डा. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नाम से एक गैर राजनैतिक संस्था यानी “एनजीओ” की स्थापना की और हर वो प्रयत्न किये जिससे इस एनजीओ की पैंठ समाज में बने और लोगों में इस राजनैतिक दर्शन का प्रचार-प्रसार और विस्तार हो. समाज में यह आकांक्षा पैदा हो कि राजनैतिक सत्ता की लगाम बहुसंख्यक हिन्दुओं के हाथों में आये और भारत हिन्दू राष्ट्र बने. आरएसएस की स्थापना के 26 वर्षों बाद जब समाज में इस आकांक्षा की पकड़ बनने लगी तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने वर्ष 1951 में भारतीय जनसंघ के नाम से एक राजनैतिक पार्टी की स्थापना की. वर्ष 1952 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पहली बार हुए चुनावों में दो सीटों पर सफलता हासिल कर पार्टी का खाता खोला.
देश में आपातकाल लगने के बाद, सत्ता के खिलाफ तमाम राजनैतिक पार्टियों के “प्यालों में आये ऊफान” को अपने अनुकूल मान, वर्ष 1977 में जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर जनसंघ सहित सभी ने अपनी-अपनी पहचान को मिटाकर “जनता पार्टी” नाम से नया संगठन बना लिया. जनता पार्टी बनकर वर्ष 1980 में हुए चुनावों में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की तमन्ना तो पूरी हो गयी, पर जब सत्ता चलाने की बारी आई तो “भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना है” से असहमत नेताओं के साथ हुई खटपट का परिणाम यह हुआ की इस लक्ष्य के समर्थकों ने जनता पार्टी छोड़ “भारतीय जनता पार्टी” के नाम से नया संगठन बना लिया. संक्षेप में, “भारतीय जन संघ” से “भारतीय जनता पार्टी” बनने तक के सफ़र की यह दास्तां है. इस सफर में पाठशाला से शुरू आरएसएस का राजनैतिक शिक्षण संस्थान आज राजनैतिक युनिवर्सिटी बन गया है.
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इन 62 वर्षों (1952 से 2014) में कांग्रेस सरकारों का कार्यकाल सर्वाधिक रहा. उसी की नाक के नीचे समाज में यह आकांक्षा अंकुरित हुई कि राजनैतिक सत्ता की लगाम बहुसंख्यक हिन्दुओं के हाथों में आये और भारत हिन्दू राष्ट्र बनने की महत्वाकांक्षा वट वृक्ष बन गई. कांग्रेस यह समझने में पूरी तरह नाकायाब रही. ये छोटी-मोटी नाकामयाबी नहीं है. इस नाकामयाबी का खामयिजा आज पूरा देश भुगत रहा है.
अपनी उम्र के 92 बसंत देख चुका यह एनजीओ आज संख्या-बल के आधार पर विश्व का सबसे बड़ा गैर सरकारी संगठन होने का दावा करता है. इसका भी वही लक्ष्य है, जो इसराइल का है. फर्क सिर्फ इतना है कि इजराइल ने उसे हासिल कर लिया है और भारत में इस एनजीओ को उसे हासिल करना है. यह एनजीओ इजराइल के अनुभवों से लाभान्वित होने के सभी प्रयास करता दिखे तो अचम्भे की बात नहीं होगी. इजराइल ने अभी हाल ही में खुद को यहूदी राष्ट्र घोषित कर दिया है. वहां भी मुसलमानों की आबादी लगभग 20 प्रतिशत है, जिन्हें अब यहूदियों के मुकाबले कम अधिकार प्राप्त होंगे.
वर्ष 2014 में अपने “प्रिय’’ परंतु “आंखों पर पट्टी बांधे टट्टुओं“ के कंधों पर सवार हो, कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की राह सुझाने वाले इस एनजीओ ने, इन्ही टट्टुओं से कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करा दिया और खाली कुर्सियों पर मजबूती से उन्हें बैठा भी दिया है. यह एनजीओ नहीं चाहता कि कांग्रेस को फिर सत्ता में वापसी हो. आज कांग्रेस की राजनैतिक जमीन को “उपजाऊ से ऊसर“ बना देने की नीति का निर्माता भी यही एनजीओ है.
कांग्रेस की सत्ता में वापसी तभी हो पाएगी जब वह अपनी बंजर हो गयी जमीन को फिर से सार-सब्ज बना लेगी. इसके लिए उसे अवसरों को पहचानना भी होगा और उसके लिए संसाधनों को चुनना और जुटाना भी होगा. यह महत्वपूर्ण सवाल बन गया है कि जो नेतृत्व विरासत में मिली सम्पत्ति को संभाल के रख न सका, वो सड़क पर आने के बाद, उसे फिर से हासिल कर लेगा ? कांग्रेस को परम्परागत और नए युवा वोटरों में यह विश्वास भी पैदा करना होगा कि कांग्रेस वह सब करने में सक्षम है. संगठन के नए कर्त्ता-धर्ताओं की अब यह प्राथमिक जिम्मेदारी बन गयी है. यह जिम्मेदारी निभाती कांग्रेस अभी दीख नहीं रही है. शायद उसे विश्वास है कि वर्तमान बीजेपी सरकार के विरुद्ध लोगों की खिजलाहट उसके सपनों को साकार बना देगी.
पर खिजलाये लोग यानी, मोदी जी के अधिनायकवाद, “मैं और मैंने“ से खिजलाये लोग ऐसा नहीं सोंचते. वे बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं कि कब कांग्रेस अपने मजबूत पाऊं पर खड़ी हो और कब उन्हें मोदी जी की “मैं और मैंने“ से छुटकारा दिलाये. पर फिलहाल तो वह भी हताश हैं. लोगों की यह हताशा ही बीजेपी के उस विश्वास को बल प्रदान करती है कि 2019 में वही, पुनः सत्ता में वापसी करेगी. सत्ता में वापसी का बीजेपी का यह आत्म विश्वास कदम कदम पर, उन खिजलाये लोगों को यह कहने को विवश करता है कि ‘फिलहाल उन्हें, बीजेपी का कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा.’
कहने को तो देश भर में सभी राजनैतिक पार्टियां अपनी चौखट पर बीजेपी से इतर, अपनी पहचान का बोर्ड लटकाए हुए दिखती हैं, फिर भले ही केंद्र में बीजेपी की मौजूदा सरकार का हिस्सा बनती-टूटती क्यों न रहे. वे अपने-अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में, अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए ही ऐसे बोर्ड लटकाए हुए हैं. उनमें से बहुतों का असली मकसद, केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के साथ, सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करना ही है. बीजेपी बड़ी आकुलता-व्याकुलता से लोकसभा और राज्यसभा में “एन-केन-प्रकारेण” तीन चौथाई बहुमत जुटाने की फिराक में है.
जरा पूरे देश में बिछी राजनैतिक चौसर पर नजर दौड़ाएं और विचार करें कि केंद्र में बीजेपी को अकेले सत्ता से बेदखल करने की सामर्थ किस राजनीतिक पार्टी में है ? कांग्रेस सहित किसी क्षेत्रीय पार्टी में फिलहाल तो नहीं दीख रही. इस समय एनडीए में बीजेपी के साथ 34 अन्य पार्टियां जिनमें वो छोटी से छोटी पार्टियां भी, जो चुनाव आयोग से मान्यता प्राप्त भी नहीं है, शामिल हैं. चुनावों के समय बीजेपी इनका इस्तेमाल अपने चुनावी अभियानों का बोझ ढोने के लिए उसी तरह करती है, जैसे हिमालय की चोटियों तक पहुंचने के लिए पर्वतारोही अपना बोझा ढ़ोने के लिए शेरपाओं का इस्तेमाल करते हैं. इन 34 पार्टियों में 1. शिव सेना, 2. तेलगु देशम, 3. शिरोमणि अकाली दल, 4. पीडीपी, 5. नागा पीपल्स फ्रंट, 6. लोक जनशक्ति पार्टी, 7. राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, 8. ऑल झारखण्ड स्टूडेंट यूनियन, 9. महाराष्ट्रवादी गोमान्तक पार्टी, 10. देसिया मुरपोक्कु द्रविण कड़गम, 11. नेशनल पीपुल्स पार्टी, 12. अपनादल, 13. ऑल इण्डिया एन० आर० कांग्रेस, 14. स्वाभिमानी पक्ष, 15. रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया, 16. इंडिया जननायागा काच्ची, 17. कामतापुर पीपुल्स पार्टी, 18. केरल कांग्रेस (थॉमस), 19. केरल कांग्रेस (नेशनलिस्ट), 20. कोंगुनादु मक्कल देसिया कच्ची, 21. गोरखा जनमुक्ति मोर्चा, 22. गोवा विकास पार्टी, 23. जनसेना पार्टी, 24. जे० एंड के० पीपुल्स कोंफेरेंस, 25. नार्थ-ईस्ट रीजनल पोलिटिकल फ्रंट, 26. पुथिया निधि काच्ची, 26. बहुजन रिपब्लिकन एकता मंच, 27. मणिपुर पीपुल्स पार्टी, 28. यूनाईटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट, 29. राष्ट्रीय समाज पक्ष, 30. रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (बोल्शेविक), 31. शिव संग्राम, 32. हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा सेकुलर (प), 33. पुथिया नीधि काची, 34. बहुजन रिपब्लिकन एकता मंच शामिल हैं. इनमें सिर्फ 22 पार्टियां ही ऐसी हैं जिनके लोकसभा में कुल 54 सदस्य हैं. इनमें शिवसेना के सर्वाधिक 18 और टीडीपी के 16 सांसद हैं और दोनों के साथ बीजेपी के रिश्ते मधुर नहीं हैं. कोई पता नहीं, हवा का रुख यदि बीजेपी के पक्ष में नहीं दिखा तो चुनाव से पूर्व ये दोनों बीजेपी से अपना गठबंधन तोड़ भी सकते हैं. यदि चुनाव परिणाम बीजेपी के अनुकूल नहीं आये तो सत्ता में अपने हिस्से से ज्यादा पाने की लालसा बलवान हो जायेगी. इस स्थिति से निबटने के लिए बीजेपी अन्य दलों पर डोरे डाल रही है, जिसमें तमिलनाडू की एआईएडीएमके प्रमुख है. प. बंगाल की ममता बनर्जी और बिहार में लालू यादव के बेटे तेज प्रताप, उ. प्र. से मायावती और अखिलेश 2019 के लोकसभा के चुनाव में बीजेपी के साथ नहीं जायेंगे, ऐसा माना जा रहा है.
कांग्रेस के साथ वर्ष 2004 से 2014 तक सत्ता का सुख लेने वाले गठबंधन की लोकसभा में मौजूदा स्थिति यह है- कांग्रेस (50), आरजेडी (05), डीएमक े(04), इंडियन मुस्लिम लीग (01), जनता दल सेकुलर (01), केरल कांग्रेस-एम (01), राष्ट्रीय लोक दल (01), रिवोल्युशनरी सोशलिस्ट पार्टी (00), कम्युनिस्ट मार्क्सिस्ट-जॉन (00), झारखंड मुक्ति मोर्चा (00), केरल कांग्रेस-जेकोब (00), पीस पार्टी (00), महान दल (00), एनसीपी (04) कुल चौदह पार्टियों के 67 सदस्य.
इन दस वर्षों में कांग्रेस गठबंधन का साथ छोड़ने वालों में – टीआरएस (2006), मरुमलार्ची द्रविण मुनेत्र खड्गम (2007), बीएसपी (2008), कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (2008), कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (2008), पीडीपी (2009), पट्टाली मक्काल काची (2009), ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (2012), टीएमसी (2012), झारखंड विकास मोर्चा-प्रजातांत्रिक (2012), सोशलिस्ट जनता-डेमोक्रेटिक (2004).
स्पष्ट है, 10 वर्ष सत्ता में मौजूद रहते हुए भी नाराज साथियों को मनाने, पुचकारने में कांग्रेस विफल रही. उसने क्षेत्रीय पार्टियों के वजन को सही तरीके से भांपने में बहुत बड़ी चूक की. उसके उलट बीजेपी अकेले स्पष्ट बहुमत में होने के बाद भी गठबंधन की पार्टियों की ठोड़ियों में हाथ डालती रहती है. यहां तक कि पीठ कर खडे हो जाने के बाद भी, उन्हें परोक्ष रूप से चिपकाए रहती है.
चार साल में बीजेपी ने अपने चुनावी संकल्प पत्र को बलाए-ताक ही नही रखा बल्कि उन सभी योजनाओं पर, बुलेट ट्रेन की स्पीड से काम किया जिसका वह विपक्ष में रहते हुए घोर विरोध करती रही है.
संकल्प पत्र में किये वादे कितने पूरे हुये ? यह सवाल पूंछने पर बीजेपी समर्थक कहते हैं, ‘‘भईया, पूरे 800 साल बाद जिस ‘तख्ते-ताउस’ पर विदेशी आक्रान्ता बैठते रहे उस पर पहली बार कोई “हिन्दू चेहरा” बैठा है. अब इस देश में हिन्दुओं को सर ऊंचा करके चलने लायक तो बन जाने दो.’’ इन तालिबेइल्मियों से कोई पूछे 1952 से अब तक इस तख्ते ताउस पर बैठे उस एक चेहरे का नाम बताओ जो हिन्दू नही था ? क्या बीजेपी अटलबिहारी बाजपेयी को हिन्दू नहीं मानती ? हकीकत तो ये है कि अटल बिहारी बाजपेयी ने कभी बीजेपी के वैचारिक पुरोहितो को, उसकी सवारी नहीं करने दी. आज बीजेपी के वैचारिक पुरोहित के कहने पर, न सिर्फ हिन्दू-मुसलमान के बीच घृणा के बीज बोये जा रहे हैं, बल्कि हिन्दुओं को तालिबानियों की तरह क्रूर और हिंसक बनाने का काम किया जा रहा है. (देखे मेरा ही लेख “लिंचिंग : घृणा की कीचड़ से उपजी हिंसा अपराध नही है ?”). जिस तरह मुस्लिम देशों में अमन-पसंद मुसलमान और हिंसा-पसंद तालिबानी मुसलमान बंट गए हैं, ठीक उसी तरह बीजेपी के ये वैचारिक पुरोहित हिन्दुओं को भी इस देश में बांट रहे हैं.
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने लोकसभा में बीजेपी गठबंधन की एक घटक पार्टी टीडीपी द्वारा पेश मोदी सरकार के प्रति अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस के दौरान आरएसएस को हिन्दुइज्म के इस तालिबानी चहरे से परिचय कराने के लिए उसका आभार व्यक्त किया. जान पर खेल कर भी दुश्मन को भी गले लगाने की भारतीय संस्कृति से ओत-प्रोत छत्रपति शिवाजी की तरह, राहुल आज उस पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष हैं, जिसका जन्म बीजेपी के जन्म से लगभग एक शताब्दी पूर्व हुआ है. बीजेपी तो उस हिन्दुइज्म का ककहरा भी नही जानती.
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