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हर सम्भव तरीक़े से पूर्ण स्वतन्त्रता – भगत सिंह

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हर सम्भव तरीक़े से पूर्ण स्वतन्त्रता - भगत सिंह

अमृतसर कॉन्‍फ्रेंस में जिन बातों का बहुत झगड़ा हुआ और बहस हुई, उनमें से एक सबसे अधिक ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि कांग्रेस का उद्देश्य हर सम्भव तरीक़े से ‘अंग्रेज़ी राज से बाहर पूर्ण स्वतन्त्रता’ प्राप्त करना हो.

प्रस्ताव पास हो गया और बड़े-बड़े नेताओं ने कांग्रेस से इस्तीफ़े दे दिये और धमकियां देनी शुरू कर दीं और प्रस्ताव पास करने वालों को षड्यन्त्रकारी, नेतागिरी के भूखे लोग कहा गया. पंजाबभर के अख़बारों ने आसमान सर पर उठा लिया और हाय-तौबा मचा दी. हमें समझ नहीं आ रहा कि क्या कहर टूट पड़ा.

मद्रास कांग्रेस ने पूर्ण स्वतन्त्रता (Complete Independence) का प्रस्ताव पास कर दिया था. यहां उसने स्पष्ट कर दिया कि आज़ादी, पूर्ण आज़ादी अंग्रेज़ी राज से बाहर ही हो सकती है. हां, यह बात साफ़ है कि मद्रास के प्रस्ताव को (अब) ज़्यादा ज़ोरदार और निश्चित बना दिया गया है. उस प्रस्ताव पर तो किसी को कोई ख़ास शिकायत हुई नज़र नहीं आयी थी. झगड़ा सिर्फ़ ‘हर सम्भव तरीक़े से’ (By all possible means) (आज़ादी) प्राप्त करने का है. अब तो कांग्रेस कोड में लिखा हुआ था कि – By all peaceful and legitimate means – सभी शान्तिपूर्ण और न्यायिक तरीक़ों से स्वराज लिया जाये.

पूरा देश तैयार था. नौजवानों ने गांंव-गांंव में सिविल नाफ़रमानी की तैयारी कर दी थी. चौरा-चौरी में एक-दो भाड़े के टट्टुओं ने अत्याचार कर दिया या यों कहो कि कुछ लोगों से करवा दिया. बस पूर्ण शान्ति वाली बात ख़त्म. फिर क्या था, पूरे देश का बेड़ा गर्क कर दिया. क्या ख़ूब फ़िलासफ़ी है कि शान्तिपूर्ण शब्द का बहाना लेकर हरामख़ोर ज़मींदारों और ताल्लुकेदारों का पक्ष लिया गया और बारदौली रैदलीफन में साफ़ कह दिया गया कि हे किसानो, तुम अपने मालिकों को लगान दे दो.

बस शान्तिपूर्ण के बहाने देश का बेड़ा गर्क कर दिया गया. यातनाओं के झूठे आरोपों में फंसाये गये लोगों का पक्ष लेने की हिम्मत तक हमें न हुई और कई ग़रीब वहांं फांंसी पर चढ़ गये. यह तो अत्याचार हुआ न ? इस पूर्वाग्रह को मिटाना बहुत ज़रूरी था. इस प्रस्ताव के पास होने से लोगों के देखने का दायरा कुछ बढ़ गया है.

दूसरी बात यह है कि क्या हमने क़सम खा रखी है कि यदि शान्तिपूर्ण तरीक़े से स्वराज मिलेगा तो लेंगे, अन्यथा हम अंग्रेज़ी राज में ही रहना पसन्द करेंगे ? ‘हांं’ कहने वाले अन्धे आदर्शवादी लोगों के साथ हम बात नहीं करना चाहते. जिस स्वराज के बारे में दुनिया का सबकुछ क़ुर्बान किया जा सकता है, उसके बारे में ऐसी बेकार बातों की क्या ज़रूरत है ?

हां, तीसरा सवाल उठा है कि क्या विद्रोह करके, लड़ाई करके हम स्वराज ले सकते हैं ? आज तो एक ही जवाब मिल सकता है कि नहीं. आज हम इतने संगठित, सशस्त्र और ताक़तवर नहीं हैं, इसीलिए यह तरीक़ा अभी असम्भव है. फिर झगड़ा किस बात का ? सवाल यह है कि क्या हर क़ौम को कभी भी बल-प्रयोग का अधिकार है या नहीं ? डॉक्टर सत्यपाल जी के शब्दों में – Have we not a right to employ all possible means to attain our goal. उसके जवाब में ‘ट्रिब्यून’ कहता है कि नहीं. (Not a right can either be legal or moral right) बहुत अच्छा जी ! क़ानूनी अधिकार तो नहीं हो सकता क्योंकि क़ानून परायों के हाथ में है. पर क्यों जी, सिविल नाफ़रमानी- सिविल नाफ़रमानी करके आसमान सर पर उठा लेने वाले सज्जन यह नहीं जानते कि सिविल नाफ़रमानी भी कोई क़ानूनी तौर पर जायज़ (legal right) नहीं कहला सकती वह भी स्पष्टतः समय के क़ानून (law) को तोड़ना और उसका विरोध करना है. किसी भी राज (State) के ख़िलाफ़ किसी तरह की आवाज़ उठानी कभी भी legal right नहीं कहला सकती. यहां नैतिक अधिकार (moral right) होता है. यदि सम्भव होने और अत्यन्त ज़रूरी होने पर भी बल-प्रयोग को Moral right नहीं समझा जाता तो अमेरिका के वीर वाशिंंगटन और पैट्रिक हेनरी, इटली के मैजिनी और गैरीबाल्डी, रूस के लेनिन आदि आज़ादी दिलाने वालों और अपने सभी बुज़ुर्गों श्री रामचन्द्र, श्री कृष्ण, श्री शिवाजी, श्री प्रताप और गुरु गोविन्द सिंह जी ने कुकर्म किये और वे सम्माननीय न हुए! यह फ़िलासफ़ी भी कमाल है! सवाल सिर्फ़ यह उठता है कि जब आज विद्रोह करना भी नहीं और है भी असम्भव तब All possible means पास करने की ज़रूरत क्यों पड़ गयी ? लेकिन जब आज पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रस्ताव पास करते हैं तो क्या आज ही स्वतन्त्रता ले लेते हैं ? यह सिर्फ़ ऊंंचा आदर्श सामने रखा गया है. इस तरह ‘हर सम्भव तरीक़े से’ पास करने से लोगों की तंगदिली दूर कर दी गयी और उनके सामने बड़ा भारी आदर्श रख दिया गया है.

साथ ही एक और बात भी है. आज कई साल हो गये हैं, जब से कितने ही वीर ‘पूर्ण स्वतन्त्रता, पूर्ण स्वतन्त्रता’ की रट लगाये फांंसी पर लटक गये. आज हमारे समझदार नेताओं को पूर्ण स्वतन्त्रता की घोषणा करने की ज़रूरत पड़ी और वे सबसे गर्म नेता कहाने लगे और हम किसी भी नौजवान को ताक़त में विश्वास रखने पर दुत्कारना शुरू कर देते हैं और उन बेचारे देशभक्तों पर कहर बरपा करते हैं और कोई परवाह नहीं करते. 1914-15 के मुक़दमों में जो अन्धेरगर्दी हुई, क्या वे साथी अपनी ही लापरवाही का परिणाम नहीं थे ? तब गला फाड़-फाड़कर कांंव-कांंव. ये बड़े ख़तरनाक हैं, ख़ूंंख़ार हैं. और जब उन बेचारों का फांंसी लग जाना, तब भीतर घुस-घुस बातें करना. वे सच्चे देशभक्त थे. 1908 से लोग फांंसी पर चढ़ते रहे, पर सब अक्लमन्द लोग उन्हें गालियांं देते रहे. 1925 में विपिनचन्द्र पाल ने एक लेख लिखा कि It were political assasins who passed their way Minto Morely scheme. यानी राजनीतिक हत्यारों की कृपा से ही मिण्टो-मारले स्कीम मिली थी. और आज काकोरी वाले शहीदों के घरवालों से सहानुभूति प्रकट करने पर बिगड़ जाने वाला Modern Review भी विपिनचन्द्र पाल की उपरोक्त बात की ताईद करता हुआ एक बड़े माडरेट एस.आर. दास के एक पत्र में लिखता है कि इंग्लिस्तान को जगाने के लिए और यह बताने के लिए कि हिन्दुस्तान की स्थिति अच्छी नहीं है, एक बम की ज़रूरत थी – ‘A bomb was necessary to awaken England from Iber sweet dream that all was well with India.’

यदि उन ग़रीबों की ओर, जोकि शान्ति में विश्वास नहीं करते, लेकिन आज़ादी के लिए हम लोगों से अधिक बलिदान कर सकते हैं, समय पर ध्यान दिया जाये तो कम से कम उनके साथ अन्धेरगर्दी और ज़ुल्म तो न हुआ करें और उनकी मुसीबत में कुछ तो कमी हो जाया करे.

एक और भी बात है कि माडरेटों को सदस्य बनाने के लिए खद्दर की शर्त लगाने पर ज़ोर देने वाले सज्जन यह तो बतायें कि क्या माडरेटों से अधिक बलिदान करने वाले नौजवानों के लिए कांग्रेस का दर खोलना पाप है ? उनको आगे नहीं आने देना ? यह तो हम जानते हैं कि आज़ादी की जंग में इस्तेमाल के लिए हमारे पास केवल एक ही हथियार है ‘सिविल नाफ़रमानी’ और वैसा आन्दोलन अधिक शान्तिपूर्ण होगा ही, लेकिन ‘सम्भव’ शब्द के आ जाने से किसी को भी कोई शिकायत नहीं रह जानी चाहिए.

और यदि शब्द कहने से डरते हो कि सरकार आ गला पकड़ेगी तो सुन लो – “Freedom has to be won inch by inch and whether peaceful or other methods are employed, the Government of the day will not spare any pains to crush the movement of independence.” यानी सरकार तो शान्तिपूर्ण या अशान्तिपूर्ण, सभी आन्दोलनों को दबाने की कोशिश करेगी. इसलिए हमें उस प्रस्ताव से डरना नहीं चाहिए जिसने हमारे काम के दायरे को ज़्यादा खुला कर दिया और हमारी तंगनज़र को खोल दिया है, बल्कि उसका तो स्वागत करना चाहिए.

किरती/मई, 1928

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