हालिया वर्षों में दुनिया में तीन ऐसी घटनाएं हुईं जिन्हें ‘पोस्ट-ट्रूथ पॉलिटिक्स’ से जोड़ कर देखा गया. पहला, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प का राष्ट्रपति बन जाना, दूसरा, यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने का फैसला और तीसरा, भारत में नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बन जाना.
इन घटनाओं ने ‘पोस्ट ट्रूथ’ को इतना चर्चित शब्द बना दिया कि ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने इसे वर्ष 2016 का ‘वर्ड ऑफ द ईयर’ घोषित कर दिया. विचारकों ने तो इस दौर को ही ‘Post-truth era’ यानी ‘उत्तर-सत्य युग’ कहना शुरू कर दिया, क्योंकि बीते कुछ दशकों में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के संचालन में इस प्रवृत्ति का प्रभाव बढ़ता गया है.
1990 के दशक में अमेरिकी नेतृत्व में नाटो का खाड़ी युद्ध में उतर पड़ना और इराक को बर्बाद कर देना पोस्ट-ट्रूथ पॉलिटिक्स का एक शुरुआती अध्याय माना गया. ट्रंप और मोदी की जीत के साथ ही ब्रेक्जिट ने साबित किया कि पोस्ट ट्रूथ पॉलिटिक्स अब दुनिया के सिर चढ़ कर बोल रही है. सत्य कहीं पीछे छूटता गया और कृत्रिम धारणाओं की निर्मिति से राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति अब राजनीति की प्रधान प्रवृत्ति बन चुकी है.
‘Post-truth era’ यानी ‘उत्तर-सत्य युग’ को परिभाषित करते हुए ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी कहता है… “ऐसा युग, जिसमें वस्तुगत सत्य की जगह काल्पनिक या आरोपित सत्य लोगों की धारणाओं के निर्माण में सहायक हो रहे हों.”
भारतीय राजनीति के वर्त्तमान दौर और उसमें नरेंद्र मोदी की भूमिका का व्यापक मूल्यांकन करें तो ऐसे निष्कर्ष सहज ही सामने आने लगते हैं जिनमें हम पाते हैं कि किस तरह उन्होंने और उनके चुनाव प्रबंधकों ने झूठ की खेती कर न सिर्फ राजनीतिक फसल काटी बल्कि जनहित से जुड़े वास्तविक मुद्दों को पूरी तरह नेपथ्य में धकेल दिया.
सत्य कहीं हाशिये पर पड़ा है और झूठ विजयी भाव से अट्टहास कर रहा है. कृत्रिम धारणाओं की निर्मिति ने अधिकतर मतदाताओं की मति हर ली है और वे सही-गलत या सत्य-असत्य का भेद नहीं कर पा रहे. मोदी के नेतृत्व में भाजपा की चुनावी सफलताओं में कृत्रिम धारणाओं के निर्माण की बड़ी भूमिका रही है और इसलिये दुनिया भर के विचारकों का बड़ा वर्ग नरेंद्र मोदी को पोस्ट-ट्रूथ पॉलिटिक्स की उपज मानता है.
ट्रंप की जीत ने दुनिया को सकते में डाल दिया था और उनके ‘अमेरिका फर्स्ट’ के नारे ने वैश्वीकरण के अध्येताओं को दुविधा में डाल दिया था. ट्रंप ने वैश्विक राजनीति और उसमें अमेरिकी भागीदारी को नए सिरे से परिभाषित करना शुरू किया और इसे अमेरिकियों के हित मे बताना शुरू किया.
यही उनका मुख्य चुनावी एजेंडा भी था. इसके लिये भ्रामक आंकड़ों और धारणाओं का जम कर उपयोग किया गया. इन राजनीतिक घटनाक्रमों को अमेरिकी बौद्धिक समाज ने गहरे संदेह की नजर से देखा और जीवित किंवदंती बन चुके वयोवृद्ध विचारक नाओम चोम्स्की ने ट्रम्प के नेतृत्व वाली सरकार को “इतिहास की सर्वाधिक मानव द्रोही सरकार” की संज्ञा से नवाजा. नरेंद्र मोदी की सरकार के प्रति भी चोम्स्की की धारणा कुछ ऐसी ही बनी जिसे उनके अनेक साक्षात्कारों में देखा जा सकता है यानी , ऐसी सरकार जिसके कार्यकलापों से मनुष्यता खतरे में पड़ने लगे.
बहरहाल, ट्रम्प की तो उल्टी गिनती जल्दी ही शुरू हो गई जब अनेक सर्वे में ऐसे तथ्य सामने आने लगे कि उनकी लोकप्रियता में ह्रास की गति पूर्ववर्त्ती राष्ट्रपतियों की तुलना में सर्वाधिक है. अमेरिकी समाज अपने बौद्धिकों की बातों को गंभीरता से लेता है और जल्दी ही ट्रम्प के फैसलों और कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगने शुरू हो गए. अमेरिकी संस्थाओं ने भी ट्रंप के अनेक निर्णयों और कार्यप्रणाली का सजग विरोध किया. यह सिर्फ सजग ही नहीं, बल्कि सक्षम विरोध भी था, क्योंकि अमेरिकी लोकतंत्र परिपक्व है और वहां की संस्थाएं सत्ताधारियों की पिछलग्गू नहीं हुआ करतीं.
यद्यपि, संस्थाओं के प्रतिरोध और जनमत की सजगता ने ट्रम्प को अपनी नीतियों और कार्यप्रणाली में अनेक बदलाव लाने को बाध्य किया है, तथापि, कयास लगाए जाने लगे हैं कि ट्रम्प को अगला कार्यकाल शायद न मिले. उधर, ब्रेक्जिट के मामले से ब्रिटेन की राजनीति में गहरे उथल-पुथल का दौर जारी है. प्रधानमंत्री टेरेसा में और ब्रिटिश संसद इस मसले को सुलझाने में लगे हैं. धारणाओं की राजनीति अब जमीनी हकीकतों से रूबरू हो रही है
लेकिन भारत में…?
जहां अमेरिकी और ब्रिटिश समाज अपने राजनीतिक घटनाक्रमों को लेकर गहरे आत्ममंथन के दौर से गुजर रहा है वहीं भारत में ‘पोस्ट-ट्रूथ पॉलिटिक्स’ की फसल नए सिरे से लहलहा रही है. नरेंद्र मोदी और उनके चुनाव प्रबंधक नए सिरे से भ्रामक धारणाओं का एक कृत्रिम माहौल रच रहे हैं.
बीते 5 वर्षों ने मोदी की “कृत्रिम और आरोपित धारणाओं पर आधारित जनविरोधी राजनीति” की एक-एक परतों को उघड़ते हुए देखा है, लेकिन, अपने अगले कार्यकाल के लिये चुनावों की देहरी पर खड़े मोदी फिर उन्हीं तौर-तरीकों को लेकर देश के कोने-कोने का चक्कर लगा रहे हैं. इन 5 वर्षों में लोकतंत्र की स्तम्भ मानी जाने वाली भारतीय संस्थाओं की दुर्गति होती गई. जहां अनेक अमेरिकी संस्थाएं ट्रम्प के सामने अवरोध की दीवार बन कर खड़ी हुईं, भारत में वे नतमस्तक की मुद्रा में आती दिखीं.
रक्षा संस्थानों को राजनीतिक उपकरण बना कर उनसे दलगत या वैयक्तिक लाभ उठाने की प्रवृत्ति तो सबसे आपत्तिजनक है, लेकिन इन हरकतों का जितना राष्ट्रव्यापी विरोध होना चाहिये था, उसका शतांश भी नजर नहीं आया. अवसन्न विपक्ष जन चेतना और प्रतिरोध की अभिव्यक्ति में नितांत अक्षम साबित हुआ और उसकी इस अक्षमता ने भारतीय राजनीति की कलई उतार कर रख दी.
सीबीआई, प्रवर्त्तन निदेशालय, आयकर विभाग आदि पहले के दौर में भी सत्ता के अनुगामी रहे लेकिन मोदी राज में इनकी हैसियत सत्ताधारियों की कठपुतली संस्थाओं में तब्दील हो गई.
सबसे सटीक और प्रासंगिक उदाहरण चुनाव आयोग का ही लें. उस पर इतने सवाल उठ रहे हैं कि इसकी विश्वसनीयता गम्भीर संकट में है. कोई मुख्यमंत्री राजनीतिक रैली में भारतीय सेना को “मोदी जी की सेना” बता रहा है तो *कोई राज्यपाल सार्वजनिक तौर पर “मोदी जी को जिताने” की अपील कर रहा है और*चुनाव आयोग एक औपचारिक चेतावनी के हास्यास्पद कदम से आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं दिखा पा रहा.
दुनिया के अनेक नामचीन अर्थशास्त्रियों ने भारत सरकार पर आरोप लगाया कि उसके द्वारा जारी किए जा रहे आर्थिक आंकड़े भ्रामक तथ्यों पर आधारित होते हैं और यह मतदाताओं की आंखों में धूल झोंकने के सिवा कुछ और नहीं. लेकिन, मुख्यधारा की भारतीय मीडिया का अधिकांश हिस्सा चारण की भूमिका में प्रस्तुत होकर झूठ की इस खेती में खाद डालने का स्वामिभक्त प्रयास करता रहा है.
सर्वत्र अराजक और भ्रामक तथ्यों का बोलबाला
अंतरराष्ट्रीय मीडिया बार-बार इस तथ्य को रेखांकित करता रहा कि बालाकोट में हुए एयर स्ट्राइक में आतंकवादियों को कोई हानि नहीं हुई, लेकिन, हमारे चैनल वहां साढ़े तीन सौ मौतों और सैकड़ों मोबाइल सेटों के सिग्नल्स का निर्लज्ज हवाला देते रहे.
आंकड़े बताते हैं और असलियत भी सामने है कि रोजगार सृजन में मोदी सरकार नितांत असफल साबित हुई है लेकिन वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री अपने प्रायोजित साक्षात्कारों में रोजगार बढ़ने के गलत तथ्य प्रस्तुत करते बिल्कुल नहीं शर्माते.
वे तो आज भी नोटबन्दी को ऐतिहासिक कदम बताते बिल्कुल नहीं लजाते, जबकि उसके हाहाकारी दुष्परिणाम देश-दुनिया के सामने हैं. इसे ही कहते हैं कृत्रिम धारणाओं की निर्मिति पर आधारित “पोस्ट-ट्रूथ पॉलिटिक्स” का जलवा, जो आज भी भारत में सिर चढ़ कर बोल रहा है.
सत्य कहीं नेपथ्य में है और झूठ दनदनाते हुए इस शहर से उस शहर, इस राज्य से उस राज्य में रैलियों में गला फाड़-फाड़ कर कृत्रिम सत्य को प्रतिष्ठापित कर रहा है. कुपोषण, भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी, बिना इलाज के मरते बच्चों आदि भयानक समस्याओं से जूझते इस निर्धन बहुल देश को महाशक्ति बनाने का आह्वान करते नरेंद्र मोदी जिस भ्रामक राष्ट्रवाद की ध्वजा लेकर रैलियों में हुंकार भरते फिर रहे हैं वह इस देश के आम लोगों पर तो भारी पड़ ही रहा है, आने वाली कई पीढियां इसके प्रतिकूल प्रभावों का सामना करती रहेंगी.
सांस्कृतिक विभाजन को अगर सत्ता अपना हथियार बना ले तो इससे खतरनाक और कुछ नहीं हो सकता. मजबूत संस्थाएं, जो लोकतंत्र के स्थायित्व की पहली शर्त्त हैं, को तहस नहस कर, उनके खंडहरों पर खड़े होकर नरेंद्र मोदी अपनी चुनावी रैलियों में “मजबूत सरकार” का नारा देते हैं.
भारत को मजबूत सरकार नहीं, मजबूत संस्थाएं, मजबूत सेना, मजबूत आंतरिक सुरक्षा तंत्र, मजबूत शिक्षा और चिकित्सा तंत्र की जरूरत है. मोदी की ‘मजबूत सरकार’ के दौर में मोदी-शाह की जोड़ी मजबूत बनी, उनके राजनीतिक बगलगीर मजबूत बने, सत्ता और कारपोरेट का गठजोड़ मजबूत बना, लेकिन जिन्हें मजबूत होना चाहिये था, वे सारे तंत्र कमजोर होते गए.
सरकारें तो आती-जाती रहती हैं, आती-जाती रहेंगी, लेकिन मजबूत व्यवस्थाओं से ही देश मजबूत बनता है. झूठ की खेती कर कोई पार्टी या कोई नेता अपनी राजनीतिक फसल भले ही काट ले, देश तो इससे पीछे ही जाएगा.
क्या भारतीय समाज नरेंद्र मोदी और उनके चुनाव प्रबंधकों के इस पोस्ट ट्रूथ पॉलिटिक्स को समझने में सक्षम है ? सदियों से कहावत है कि काठ की हांडी दोबारा नहीं चढ़ती. इन चुनावों में न सिर्फ आम लोगों के वास्तविक हितों से जुड़े सवाल, बल्कि सदियों पुरानी यह कहावत भी दांव पर है.
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