चार राज्यों का रेड कॉरीडोर मध्य प्रदेश से निकले छत्तीसगढ से होते हुये झारखंड, बिहार और बंगाल को भी अपने में समेट लिया. हालांकि इन राज्यों में रेड कॉरीडोर ने उस तरह पांव नहीं पसारे जैसे पुराने चार राज्यों में हुआ. लेकिन आर्थिक सुधार की असल आधुनिक मार के निशान योजनाओं के जरिये या फिर समाज में बढ़ती खाई के जरिये जमकर उभरे. कह सकते हैं कि राजनीतिक शून्यता ने योजनाओं के सामानांतर विरोध की एक ऐसी लकीर भी खींची. जिसे कोई राजनीतिक मंच नहीं मिला तो वह कानून व्यवस्था के दायरे में लाकर माओवादी सोच तले ढाल दिया गया.
बिहार में यह मिजाज सामाजिक तौर पर उभरा, जहां जातीय राजनीति ने दो दशक में अपना चक्र पूरा किया तो उसके सामने राजनीतिक पहचान का संकट आया. वहीं बाजार में मुनाफे की थ्योरी ने वर्ग भाव इस तरह जगाया जो वर्ग-संघर्ष से हटकर भारत और इंडिया में खो गया. लेकिन 2008-09 का सामाजिक सच रेड कॉरीडोर को लेकर महज इतना नहीं है, माओवाद ने पैर पसारे और सरकार ने उन्हें आतंकवादी करार दिया. असल में वह पीढ़ी, जिसने 1991 के बाद सुनहरे भारत में खुद को सुविधाआें से लैस करने के लिये सरकार की नीतियों का खुला समर्थन किया था और बैंकों से कर्ज लेकर या जमीन गिरवी रखकर ऊंची डिग्रियां हासिल की, वहीं 2009 में अपने गांव लौटकर सरकार की नीतियों का विकल्प विकास के लिये तलाशने पर भिड़ा है.
उड़ीसा, छत्तीसगढ, झारखंड और विदर्भ के रेड कॉरीडोर मे तीन दर्जन से ज्यादा स्वतंत्र एनजीओ सरीखे संगठन उन ग्रामीण आदिवासियों के बीच जाकर खेती से लेकर पानी संग्रहण और फसल को बाजार से जोडने की विधा पर भी काम कर रहे है. साथ ही जिन इलाको में एसईजेड लाने का प्रस्ताव है, वहां के जमीन मालिकों को एकजुट कर मुआवजे के बदले जमीन पर जोत के जरिये ज्यादा बेहतर मुनाफे की बात खड़ा कर रहा है. अपने बूते काम करने की यह हिम्मत अधिकतर उन लडकों के जरिये तैयार की गयी हैं, जो मंदी की मार में बेरोजगार हो गये. इनमें कंम्प्यूटर साइंस, इंजीनियर से लेकर प्रबंधन की डिग्री पाये उन युवकां की जमात है, जो देश-विदेश में कई बरस तक नौकरी कर चुके हैं. अमेरिका से लौटे कंम्प्यूटर इंजीनियर मनीष देव के मुताबिक आर्थिक मंदी में नौकरी जाने के बाद उसने अमेरिका में जो देखा, उसे देखकर पहली समझ उसके भीतर यही आयी कि भारत में भी विकास की जो लकीर खिंची जा रही है, वह उसकी जमीन के प्रतिकूल है. इसलिये उडीसा के जिन इलाकों में खनन का काम तेजी से चल रहा है, वहां आदिवासियों के हक को जुबान देते हुये प्राकृतिक अवस्था कैसे बैलेंस रखी जा सकती है, इस पर मनीष, कटक के अपने दोस्त माइनिंग इंजीनियर पुष्पेन्द्र के साथ मिल कर काम कर रहा है.
जिला प्रशासन के अधिकारियों के साथ लगातार उसकी पहल ने अभी तक पुलिस को मौका नहीं दिया है कि वह उन्हें माओवादी करार दे. लेकिन पुलिस के भीतर भी माओवादी प्रभावित इलाकों में सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को लेकर कैसी बैचेनी रहती है, यह छत्तीसगढ के एक पुलिस अधीक्षक के जरिये भी समझा जा सकता है. राजनांदगांव के एस.पी. वी के चौबे ने तीन महीने पहले मुलाकात में ऑफ-द-रिकॉर्ड यह बात कही थी कि ‘‘जो हालात छत्तीसगढ के सीमावर्ती जिलों के हैं, उनमें आजादी के साठ साल बाद भी आजादी शब्द से नफरत हो सकती है. गांव में शिक्षा, स्वास्थय केन्द्र तो दूर हर दिन गांववाले खाना क्या खायेंगे, जब इस तकलीफ को आप देखेंगे तो कानून-व्यवस्था के जरिये किसे पकडेंगे या किसे छोड़ेंगे ?’’
बातचीत में इस पुलिस अधीक्षक ने माना था कि ‘‘माओवाद प्रभावित इलाकों में सफलता दिखाना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल सफलता पाना है क्योंकि सफलता कागज पर दिखायी जाती है, ऐसे में माओवादी किसी को भी ठहरा देना कोई मुश्किल काम इन इलाकों में होता नहीं है. लेकिन सफलता-असफलता सीधे राजनीति से जुड़े होते हैं, इसलिये हर पुलिसवाला टारगेट सफलता से भी आगे बढ़कर सफल हो जाता है क्योंकि इससे राजनीति खुश हो जाती है.’’ लेकिन संयोग है कि 12 जुलाई को वी के चौबे माओवादियां के हमले में मारे गये. पुलिस कोई चेहरा लिये रेड कॉरीडोर में तैनात नहीं रहती है. चेहरा सिर्फ नेता या राजनीति का होता है. यह बात विदर्भ के गढ़चिरोली में तैनात एस.पी. राजवर्धन ने लेखक से उस वक्त कही थी, जब नक्सली गतिविधियां इस पूरे इलाके में चरम पर थी. एस.पी. का तबादला अब मुबंई हो चुका है लेकिन उन्होंने खुले तौर पर माना था कि इन आदिवासी बहुल इलाकों को लेकर सामाजिक आर्थिक दायरे में लाना जरुरी है. सिर्फ कानून व्यवस्था के जरीये सफलता दिखायी तो जा सकती है लेकिन इलाज नहीं किया जा सकता.
इस एसपी की जीप को माओवादियों ने बारुदी सुरंग से उड़ा दिया था. जीप बीस फिट तक उछली…लेकिन एसपी बच गये. और बचाने वाला भी एक आदिवासी हवलदार ही था. लेकिन एसपी के सामाजिक प्रयोग को कभी चेहरा नहीं मिला जबकि राजनीति और नेताओं के चेहरे ने माओवादियों पर नकेल कसने के लिये अपना चेहरा भी दिखाया और राजनीतिक कद भी बढाया. इसी जिले से सटे नक्सल प्रभावित चन्द्रपुर जिले में तैनात पुणे के एक सब-इस्पेक्टर ने बातचीत में बताया कि ‘‘राजनीति ने नक्सल प्रभावित इलाकों में पुलिस तैनाती को यातनागृह में तब्दील कर रखा है. किसी भी इलाके में कोई भी राजनीतिज्ञ किसी भी पुलिस वाले को कभी भी धमकाता है कि अगर उसकी ना मानी गयी तो नक्सली इलाके में भेज देंगे या भिजवा देंगे. उस सब इंस्पेक्टर के मुताबिक जब तक बीस पच्चीस पुलिस वाले किसी नक्सली हमले में मारे नहीं जाते, तब तक राजनेता भी घटनास्थल पर जाते नहीं और मारे गये पुलिसकर्मियों के परिवार तक कोई राहत पहुंचती नहीं.’’ अब पुलिस की इस भावना को कैसे नजर अंदाज किया जा सकता है कि रेड कॉरीडोर की समस्या को राजनीति तौर पर नजर अंदाज करने से ज्यादा राजनीतिक तौर पर बढ़ाया और विकसित किया गया है क्यांकि कानून व्यवस्था के दायरे में पुलिस और माओवादियों की स्थिति कमोवेश देश की सीमा सरीखी ही मान ली गयी है, यानि पहले जिसने जिसको मार दिया उसी का वर्चस्व.
वहीं, ग्रामीण आदिवासियों की सामाजिक-आर्थिक समस्या राजनीति की जरुरत है क्योंकि इसके बगैर विकास की मोटी लकीर पतली हो जा सकती है. लेकिन 2009 में इस पूरी समझ को बंगाल से एक नयी दिशा मिली है, इसे नकारा भी नहीं जा सकता. पहली बार शहर और गांव की दूरी वामपंथी राज्य में ना सिर्फ दूर हुई बल्कि राजनीतिक तौर पर जो मुद्दे पहने नक्सली और फिर माओवादियों का प्रभाव कह कर दबा दिये जाते थे, उन्हें राजनीतिक जुबान उसी संसदीय राजनीतिक चुनाव में मिली, जिसे रेड कॉरीडोर में बहिष्कार के तौर पर देखा-समझा जाता रहा. बंगाल के जिन इलाकों में जमीन और जंगल का मुद्दा उछला वहां वामपंथी राजनीति चालीस साल से हैं, जबकि पहली बार मुद्दा 1995-96 में उछला और यहां माओवादी 2005 में पहुंचे. कह सकते हैं कि अगर यह इलाका भी लेफ्ट नहीं, राइट की राजनीतिक सत्ता का होता तो डेढ दशक पहले ही इस पूरे इलाके को रेड कॉरीडोर से जोड़ते हुये कानून व्यवस्था के दायरे में ले जाने से सत्ता नहीं चूकती और यह सवाल अनसुलझा रहता कि जमीन और जंगल से बहुतायत को बे-दखल करके चंद हाथों में मुनाफा और सुविधा जुटाने का मतलब विकास कैसे हो सकता है.
संयोग यह भी है कि वामपंथी राजनीति जिन वजहों से सिमटी, उसकी बड़ी वजह वही आर्थिक नीतियां हैं, जिसे राइट ने उभारा और सत्ता की खातिर लेफ्ट भी हामी भरता चला गया. माओवादियों ने अगर नंदीग्राम और लालगढ़ को लेकर वाम राजनीति की परिस्थितियों पर जिस तरह से सवाल उठाये, उससे गांव के सवाल को शहर से जोड़ने का एक रास्ता भी निकला क्योंकि रेड कॉरीडोर के दूसरे राज्यां में शहर और जंगल-गांव को बिलकुल दो अलग ध्रुव पर रखा गया है. लालगढ़ में माओवादियों ने समूचे बंगाल से जोड़कर जमीन का सवाल आदिवासियों से आगे बढ़ते हुये किसान और मजदूरों से जोड़ा. बंगाल को लेकर सवाल उठा कि जिन हालातां में सीपीएम बनी और जनता ने कांग्रेस को खारिज कर सीपीएम को सत्ता सौपी. चालीस साल बाद ना सिर्फ उसी जनता के सपने टूटे हैं बल्कि सीपीएम भी भटक चुकी है क्योंकि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के आसरे वाम मोर्चा तीस साल से सत्ता में काबिज है और जमीन पर खड़ा किसान लहुलुहान हो रहा है तो उसका आक्रोश कहां निकलेगा ? क्योंकि इन तीस सालां में भूमिहीन खेत मजदूरों की तादाद 35 लाख से बढ़कर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है, राज्य में 73 लाख 51 हजार भूमिहीन किसान है. इस दौर में चार लाख एकड़ जमीन भूमिहीनों में बांटने के लिये अधिग्रहीत भी की गयी लेकिन अधिग्रहीत जमीन का 75 फीसदी कौन डकार गया ? इसका लेखा-जोखा आजतक सीपीएम ने जनता के सामने नहीं रखा. छोटी जोत के कारण 90 फीसदी पट्टेदार और 83 फीसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहों पर जाने के लिये मजबूर हुये. इसमें आधे पट्टेदार और बटाईदारों की हालत नरेगा के तहत काम मिलने वालां से भी बदतर है. इन्हें रोजाना के तीस रुपये तक नहीं मिल पाते. लेकिन नया सवाल कहीं ज्यादा गहरा है, क्यांकि एक तरफ राज्य में 11 लाख 75 हजार ऐसी वन भूमि है, जिस पर खेती हो नहीं सकती और कंगाल होकर बंद हो चुके उद्योगों की 40 हजार एकड़ जमीन फालतू पड़ी है, वहीं किसानी ही जब एकमात्र रोजगार और जीने का आधार है तो इनका निवाला छिनकर सरकार खेती योग्य जमीन में ही अपने आर्थिक विकास को क्यों देख रही हैं ?
अगर इस परिस्थिति को देश के दूसरे इलाकों से जोड़कर देखा जाये तो हर राज्य में इस तरह के सवाल खड़े हो सकते हैं. आधुनिक स्थिति में सबसे विकसित शहरों में एक पुणे के किसानों ने सरकार के एसईजेड के विकल्प के तौर पर अपना एसईजेड रखा, जो कागज पर कहीं ज्यादा समझदारी वाला और भारतीय परिस्थितियों में को-ओपरेटिव को आगे बढ़ाने वाला लगता है लेकिन राजनीतिक तंत्र बाजार के मुनाफे के आधार को ही खारिज नहीं कर सकते. यह हर जनादेश के बाद सत्ता 1991 के बाद से खुलकर कहने से कतरा भी नहीं रही है इसीलिए रेड कॉरीडोर पहली बार देश की राजनीति में बहस की गुंजाइश पैदा कर रहा है. क्योंकि जंगल में नया सवाल ग्रामीण आदिवासियों से आगे बढ़ते हुये उस नब्ज को पकड़ना चाह रहा है, जो देश में गांव-शहर की लकीर को ठीक उसी तरह मिटा रही है, जिस तरह विकास की लकीर शहर-गांव को बंट रही है.
इस दौर में नये अक्स वही चुनावी राजनीति भी उभार रही है, जिसे माओवादी समाधान नहीं मानते. खासकर संसदीय राजनीति को लेकर आम वोटर जब सवाल कर रहा है और राजनेताओं को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है तब माओवादियों की पहल किस तरह होनी चाहिये क्योंकि बढ़ते आंतकवादी हिंसा के दौरान हर तरह की हिंसा को जब एक ही दायरे में रखा जा रहा है, तब कौन से तरीके होने चाहिये, जो विकल्प का सवाल भी उठाये और विचारधारा के साथ राजनीति को भी जोड़े. माओवादियों के सामने वैचारिक तौर पर आर्थिक नीतियों को भी लेकर संकट उभरा है. पिछले डेढ दशक के दौरान आर्थिक सुधार को लेकर सरकार पर हमला करने की रणनीति लगातार माओवादियों ने अपनायी. वामपंथी जब यूपीए सरकार में शामिल हुये तो बंगाल में ही माओवादियों ने अपनी जमीन मजबूत की. निशाना आर्थिक नीतियों को लेकर ही रहा लेकिन आर्थिक नीतियों को लेकर जो फुग्गा या कहे जो सपना दिखाया गया, बाजार व्यवस्था के ढ़हने से वह तो फूटा लेकिन माओवादियों के सामने बडा सवाल यही है कि आर्थिक नीतियों ने उन्हें आम जनता के बीच पहुंचने के लिये एक हथियार तो दिया, लेकिन अब विकल्प की नीतियों को सामने लाना सबसे बडी चुनौती है और इसका कोई मजमून माओवादियों के पास नहीं है. खासकर जिन इलाकों में माओवादियों ने अपना प्रभाव बनाया भी है, वहां किसी तरह का कोई आर्थिक प्रयोग ऐसा नहीं उभरा है, जिससे बाजार अर्थव्यवस्था के सामानांतर देसी अर्थव्यवस्था अपनाने का सवाल उठा हो यानी खुद पर निर्भर होकर किसी एक क्षेत्र को कैसे चलाया जा सकता है, इसका कोई प्रयोग सामने नहीं आया है.
नया संकट यह भी है कि अंतर्राष्ट्रीय तौर पर माओवादी आंदोलनों की कोई रुपरेखा ऐसी बची नहीं है जो कोई नया कॉरिडोर बनाये. नेपाल में माओवादियों के राजनीतिक प्रयोग को लेकर असहमति की एक बडी रेखा भी माओवादियों के बीच उभरी है लेकिन सामाजिक तौर पर माओवादियों के सामने बड़ा संकट उन परिस्थितियों में अपनी पैठ बरकरार है, जहां राजनीतिक तौर उन्हें खारिज किया जा रहा है. संसदीय राजनीति से इतर किस तरह की व्यवस्था बहुसंख्यक तबके के लिये अनुकुल होगी. माओवादियों के सामने यह भी अनसुलझा सवाल ही बना हुआ है. इसीलिये जो चुनौती सामने है, उसमें बड़ा सवाल यह भी उभर रहा है कि दो दशक पहले जिस आर्थिक सुधार ने देश को सपना दिखाया. 2009 में अगर वह टूटता दिख रहा है तो शहरों को भी गांव से कैसे जोड़ा जाये ? इसलिये पहली बार इस असफलता को भी माना जा रहा है कि राजनीतिक क्षेत्र में ट्रेड यूनियन के खत्म होने ने बाजार व्यवस्था के ढ़हने के बाद शून्यता पैदा हो गयी है.
मजदूरों को लेकर एक समूची व्यवस्था जो वामपंथी मिजाज के साथ बरकरार रहती और राज्य व्यवस्था को चुनौती देकर बहुसंख्यक जनता को साथ जोड़ती इस बार उसी की अभाव है. पहली बार ग्रामीण और शहरी दोनों स्तर पर राज्य को लेकर आक्रोश है. पहली बार अशिक्षित समाज और उच्च शिक्षित वर्ग भी विकल्प खोज रहा है. खास कर अपनी परिस्थितियों में उसके अनुकूल नौकरी से लेकर आर्थिक सहूलियत का कोई माहौल नहीं बच पा रहा तो भी वामपंथी और माओवादी दोनों इसका लाभ उठाने में चूक रहे हैं. माओवादियों के भीतर पहली बार इस बात को लेकर कसमसाहट कहीं ज्यादा है कि देश का बहुसंख्यक तबका विकल्प तलाश रहा है और दशकों से विकल्प का सवाल उठाने वालों के पास ही मौका पड़ने पर कोई विकल्प देने के लिये नहीं है, सिवाय इसके की शहर जंगल से ज्यादा बदतर हो चले हैं और मरने के लिये जंगल अब भी शहरों से ज्यादा हसीन है.
- पुण्य प्रसून वाजपेयी के ब्लॉग (http://prasunbajpai.itzmyblog.com) से साभार
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