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आरएसएस की पाठशाला से : गुरूजी उवाच – 2

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[वरिष्ठ पत्रकार और राजनैतिक विश्लेषक विनय ओसवाल के द्वारा आर.एस. एस. के वैैैचारिक धरातल की पड़ताल करती श्रृृंंखला की दूसरी कड़ी

आरएसएस की पाठशाला से : गुरूजी उवाच - 2

“हम और हमारी परिभाषित राष्ट्रीयता” (We or 0ur Nationhood Defined) नाम की अपनी पुस्तक के आमुख में “गुरूजी” लिखते हैं: “पूरी पुस्तक में मेरा जोर ‘राष्ट्र’ शब्द पर रहा है. जहांं भी समान अर्थी ‘राज्य’ शब्द के उपयोग की, ऐसी अनिवार्यता कि, उसके इस्तेमाल से बचा नही जा सकता, केवल और केवल तभी, राज्य शब्द का इस्तेमाल किया गया है. ‘राष्ट्र’ (Nation), जहांं सांस्कृतिक इकाई है, वही ‘राज्य’ (State) राजनैतिक इकाई है. दोनों ही अवधारणायें अपने में स्पष्ट होते हुए भी दोनों के आपस में गड्ड-मड्ड (Mutual Overlapping)  होने की बहुत गुंंजाईश रही हैं. ‘हिन्दू राज्य’ (Hindu State) या जिसे लोग आज ‘भारतीय राज्य’ (Indian State) समझते हैं, को अपने-अपने सन्दर्भों के लिए आरक्षित रखा गया है. सम्भव है इसकी व्याख्या के लिए अलग से पुस्तक लेखन की आवश्यक हो.”

पाठकों को एहसास हो गया होगा कि एक सामान्य बुद्धि वाले के लिए, हिन्दू राज्य (Hindu State) और भारतीय राज्य (Indian State) की अवधारणा के बीच, सैद्धान्तिक भेद की गहरी खाई है, उसे पार कर पाना बहुत मुश्किल काम है. गुरूजी के शब्दों में, वर्तमान परिस्थितियों में ‘हिन्दू राष्ट्र’ की अवधारणा को लागू करें तो वहां, विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों का राष्ट्र के साथ सम्बन्ध, के बारे में विमर्श होगा. लेकिन ये विमर्श न तो राजनैतिक दृष्टि से होगा न राज्य दृष्टि से होगा, केवल और केवल राष्ट्र की दृष्टि से होगा. पुस्तक में धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग और राष्ट्र के सम्बन्धों के बारे में जो टिप्पणियांं की गयी हैं, उन्हें उसी सन्दर्भ में समझें.

अब देखें गुरूजी के शब्दों में :

“At the outset we must bear in mind that so far as “Nation” is concerned, all those who fall out side the five fold limits of that idea (dekhen guruji-1) can have no place in national life unless  they abandon their differences, adopt the religion, culture, and language of the National and completelymerge themselves in the National race. So long as they maintain their racial, religious, and cultural differences, they can not but only foreigners, who may be either friendly or inimical to the nation.”

भावार्थ:

“शुरू से ही ये बात हमें दिमाग में भर लेनी चाहिए कि जहां तक ‘राष्ट्र ‘ की बात है, वो सब जो प्रतिपादित पांच बिंदुओं की परिधि से बाहर के हैं, का राष्ट्रीय जीवन में तब तक कोई स्थान नहींं हो सकता जब तक वे अपनी नस्लीय भिन्नताओं/पहचान को त्याग कर, राष्ट्रीय धर्म,संस्कृति और भाषा को पूरी तरह अपना न लें और राष्ट्रीय नस्ल में अपने को विलीन (merge) न कर लें. जब तक वो अपनी नस्लीय पहचान, धर्म, संस्कृति को हिन्दुओं से भिन्न बनाए रखेंंगे, हिन्दुओं के लिए वे विदेशी ही रहेंगे, दोस्त भी हो सकते हैं और बैरी भी.”

“जब तक अपनी भिन्नताओं का त्याग कर, वो राष्ट्रीय धर्म, संस्कृति और भाषा को पूरी तरह अपना न लें और राष्ट्रीय नस्ल में अपने को विलीन न कर लें”, अब यहांं सवाल खड़ा होता है कि क्या धर्म, संस्कृति और भाषा को अपना लेने भर से उसकी “नस्ल” भी बदल जायेगी ? एक अल्पसंख्यक वर्ग का व्यक्ति यदि हिन्दू धर्म अपना लें तो पूर्व की जा चुकी सुन्नत से उसे कैसे छुटकारा मिलेगा ? धर्म-परिवर्तन के बाद उसको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र इन चार वर्णों में कौन-सी जाति में शामिल किया जायगा ? क्योंकि हिन्दुओं में हर वर्ण के पेशे के अंतर्गत तमाम जातियों, उप-जातियों के समाज से लोग आते हैं. जाति प्रमाण पत्र किस कानून के तहत् जारी किया जाएगा ? हिन्दू समाज तो गौड़ (ब्राह्मण) से भी पूछता है, कौन से गौड़ ?

गुरूजी सब कुछ जानते हुए भी इस विषय पर पूरी तरह मौन साधे हुए हैं, क्यों ? शायद इसलिए कि वो अच्छी तरह जानते हैं कि अल्पसंख्यक धर्मावलम्बी को चाहे वह कितना भी धर्म और हृदय परिवर्तन कर ले, हिन्दू जन मानस कभी हृदय से उसे हिन्दू के रूप में स्वीकार नहीं करेगा. क्या अपनी निश्छल कृष्ण भक्ति और उसमें पूरी तरह अपने को विलीन कर लेने के बाद भी अब्दुल रहीम खान खाना, रसखान आदि को हिन्दू समाज क्या आज तक “हिन्दू” मानने को तैयार कर पाया ? नहीं कर पाया. इस तरह की आधी-अधूरी बातें किसी समाधान के बिना समाज को केवल भ्रमित करती है.

आरएसएस अपनी स्थापना के 92सालों के बाद आज भी यह बताने की स्थिति में नहीं है, कि उसने अपनी स्थापना सन 1925 के बाद कब, किस दिन, भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने का संकल्प लिया. कभी लिया हो, तब तो बताये. क्यों नही लिया ? यही बताये.

अधिसंख्य भारतीय युवा जिनकी उम्र आज 25 से 35 वर्षों की है, नहीं जानते कि इन 92 वर्षों में कांग्रेसियों ने अंग्रेजों की दासता में जकडी उनकी मातृभूमि को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए कितनी कुर्बानियां दी ? कितने जुल्म सहे ? वो यह भी नही जानते कि आरएसएस ने आज़ादी की लड़ाई को कमजोर करने के लिए, स्वतंत्रता संग्राम में जूझ रहे रणबांकुरों के खिलाफ, अंग्रेजों के लिए मुखबरी की. वो ये भी नहीं जानते कि आज आरएसएस, जिस तिरंगे को अपने नागपुर मुख्यालय पर फहरा रही है, उसके पीछे क्या मजबूरी है ? वो ये भी नही जानते कि अपनी स्थापना के बाद से ही आरएसएस राष्ट्रीय ध्वज को अपशकुन का प्रतीक बताती रही हैं. उसकी मजबूरी और पीड़ा देखें –

“ वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं, वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिन्दुओं द्वारा न कभी इसे सम्मानित किया जा सकेगा, न अपनाया जा सकेगा. तीन का आंकड़ा अपने में अशुभ है और ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हों, बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदायक होगा.”

और भी देखें –

हमारी महान संस्कृति का परिपूर्ण परिचय देने वाला प्रतीकस्वरूप हमारा भगवाध्वज है, जो हमारे लिए परमेश्वर स्वरूप है. इसलिए इसी परम वन्दनीय ध्वज को हमने अपने गुरुस्थान में रखना उचित समझा है. – – – हमारा दृढ़ विश्वास है कि अंत में इसी ध्वज के समक्ष सारा राष्ट्र नतमस्तक होगा.” ( नागपुर स्थित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुख्यालय पर शुरू से भगवाध्वज ही फहरता रहा है. कुछ ही वर्षों पहले उसने एक रणनीति के तहत, न की तिरंगे के सम्मान में उसे अपने मुख्यालय पर फहराना शुरू किया है.)

इस कथन में न सिर्फ राष्ट्रध्वज को नकारने और सम्मान न करने की बात उजागर होती है, अपितु अंध-विश्वासी विचारधारा का पोषण (तीन का अंक अशुभ) भी स्पष्ट झलकता है. युवा खुद विचार करें और निर्णय लें. आरएसएस भारत के बहुदलीय संविधानवाद में कितनी आस्था रखती है ? कैसे इसका उपहास उड़ाती है, यह बात हम “गुरूजी उवाच-1” में कर आये हैं, पर कुछ और बानगी भी देखें –

“हमारा संविधान भी पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों में से लिए गए विभिन्न अनुच्छेदों का एक भारी-भरकम तथा बेमेल अंंशों का संग्रह मात्र है. उसमें ऐसा कुछ भी नहींं, जिसे हम अपना कह सकें. उसके निदेशक सिद्धांतों में क्या एक भी शब्द इस सन्दर्भ में दिया गया है कि हमारा राष्ट्रीय-जीवनोद्देश्य तथा हमारे जीवन की मूल मांग क्या है, इसका बोध होता हो ? नहीं.”

एकात्म शासन की अनिवार्यता के बारे में विस्तार से की गयी चर्चाओं को पढ़ें तो पता चलेगा कि गुरूजी के मन में भारतीय संविधान में अंगीकृत संघीय ढांंचे (प्रदेशों/राज्यों का संघ) के प्रति कितनी नफ़रत गुरूजी के मन में भरी पडी है, जिसे वे किसी भी प्रकार से छिपाते भी नही हैं –

“एकात्म शासन को तुरंत लागू करने का उपाय है कि इस लक्ष्य की दिशा में, – – -हम अपने देश के संविधान से संघीय ढांंचे की सम्पूर्ण चर्चा को सदैव के लिए समाप्त कर दें. भारत के अंतर्गत अनेक (29 राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों) स्वायत्त एवं अर्धस्वायत्त राज्यों के अस्तित्व को तुरंत समाप्त कर दें तथा एक देश, एक राज्य, एक विधान मण्डल (क़ानून निर्मात्री संस्था यानी संसद), एक कार्यपालिका (यानी पूरे देश की एक सरकार), ये सब को घोषित न करने वाले वर्तमान संविधान का पुनरीक्षण एवं पुनर्लेखन हो. उसमें क्षेत्रीय, साम्प्रदायिक,भाषायी अथवा अन्य प्रकार से गर्व करने के चिन्ह भी नहींं होने चाहिए (जैसे हम गुजराती, हम मराठी, हम बिहारी, हम बंगाली, हम लिंगायत, हम ब्राह्मण, हम तेली, हम तमोली, हम अग्रवाल, हम जैन, वगैरह-वगैरह) एवं इन भावनाओं को हमारे एकत्व के सामंजस्य को नष्ट करने का कोई मौक़ा भी नहींं होना चाहिए, जिससे अंग्रेजों द्वारा किया गया तथा हमारे नेताओं द्वारा मूढ़तावश ग्रहण किया हुआ कुटिल प्रचार कि हम अनेक अलग-अलग मानव वंशों अथवा राष्ट्रीयताओं के गुट जो संयोगवश भौगोलिक एकता एवं समान सर्वप्रधान विदेशी शासन के कारण साथ-साथ हो गये हैं, (पाठक ध्यान दें कि यह बात भारत की धरती पर बसे छोटे-छोटे राजाओं महाराजाओं के राज्यों के सन्दर्भ में कही गयी है), इस एकात्म शासन की स्थापना द्वारा प्रमाणिक ढंग से अप्रमाणित हो जाएंं (यानी इतिहास के पन्नों से गायब हो जाय).

(उपरोक्त लेख में श्री गुरूजी समग्र दर्शन, विचार नवनीत, आरएसएस शाखा दर्शिका पुस्तकों से सन्दर्भ लिए गए हैं.)

(आगे के गुरूजी उवाच एपिसोडों में हम देखेंगे कि गुरूजी किस खूबसूरती से अपनी बात भारतीयों की मूल नस्ल को 30-40 हजार वर्ष पूर्व की बताते हुए उसे “हिन्दू” नस्ल करार देते हैं, और वर्तमान में उसी नस्ल वालों के हाथ सत्ता की कमान देने की बातें करते हैं.)

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