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शक्ल बदलता हिंदुस्तान

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क्या हम एक हिंदू राष्ट्र के मार्ग पर हैं ? बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि विजयी द्वारा चुनावी फैसला कैसे पढ़ा जाता है. अंग्रेजी के अखबारों में लोगों के बीच चर्चित विषयों पर अच्छे लेख प्रकाशित होते रहते है, ताजा विषय 2019 में 17वीं लोकसभा के लिए हुए चुनावों के परिणामों पर आधारित है. इसे लिखा है आशुतोष वार्ष्णेय ने जो 27 मई, 2019 के अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ है, का हिन्दी अनुवाद हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं, जिसका अनुवाद किया है राजनीतिक मामलों के विशेषज्ञ वरिष्ठ पत्रकार विनय ओसवाल ने.

शक्ल बदलता हिंदुस्तान

कोई सुझाव दे सकता है कि चुनावी फैसला राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के नेताओं के रूप में तुलनात्मक आकलन के बारे में था, और लोगों ने राहुल के मुकाबले मोदी को चुना (एक्सप्रेस फोटो).

हर चुनाव परिणाम के दो पहलू होते हैं: (सांख्यिकीय) आंकड़े जैसे किस उम्मीदवार को कितने वोट मिले, उसकी पार्टी का वोट प्रतिशत क्या रहा, पिछले चुनाव में उसी पार्टी को कितने वोट मिले थे, उसके मुकाबले पार्टी का वोट प्रतिशत घटा या बढ़ा आदि-आदि और दूसरा परिणामों की विवेचना (व्यख्यात्मक) जैसे लोगों को किस पार्टी की किन बातों से खुश या नाखुश होकर मतदान में उसे वोट किया या नहीं किया, वगैरह-वगैरह. एक बार परिणाम सामने आने के बाद, विशुद्ध रूप से आंकड़ों से भी कुछ रहस्य सामने आते है. जब तक कि हम आंकड़ों की जटिलताओं की गांठों को न खोले, वो रहस्य सामने नहीं आते. असल में, आंकड़े दिखाते हैं कि कौन जीता और कौन हारा, जीत और हार के पैमाने का भी खुलासा होता है.  हालांंकि, विवेचनात्मक पक्ष एक दूसरे प्रकार का मामला है. इसमें अन्य बातों के अलावा, यह विवेचना भी की जाती है कि जीत या हार क्या संकेत देती है ? विवेचना करते हुए हम एक राजनैतिक तिलिस्म में प्रवेश करते हैं.




नरेंद्र मोदी की भारी चुनावी जीत का क्या मतलब है ? मेरे इस प्रश्न से यह जाहिर होता है कि मैं  मुख्य रूप से जीत का श्रेय मोदी को दे रहा हूं, न कि भाजपा को. हिंदुस्तान में 2019 में हुआ यह चुनाव, अमेरिका में राष्ट्रपति के लिए होने वाले चुनावों जैसा लगता है जबकि यह चुनाव बिलकुल वैसे नहीं है. लगभग सभी पर्यवेक्षकों का मानना है कि अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी अब वह नहीं है जो पहले हुआ करती थी, आज यह डोनाल्ड ट्रम्प की पार्टी है. हिंदुस्तान में भाजपा के बारे में यही बात कही जा रही है. हालांंकि ट्रम्प एक उस्ताद हैं, जो रिपब्लिकन पार्टी संगठन में सक्रिय हुए बिना भी मात्र कुछ महीने अभियान चलाकर पार्टी में शीर्ष स्थान पर पहुंच गए जबकि मोदी ने शिखर पर पहुंचने से पहले पार्टी के निचले पायदान पर काम किया है. आज भाजपा निस्संदेह मोदी की पार्टी है, अमित शाह को पार्टी अध्यक्ष होते हुए भी लोग उन्हें मोदी का एक बेहद वफादार सहयोगी मानते हैं.

वाजपेयी-आडवाणी-जोशी युग अब समाप्त हो चुका है.  वाजपेयी ने कभी अखबारों को साक्षात्कार देते हुए कहा था कि ‘वह अयोध्या आंदोलन पर लाल कृष्ण आडवाणी के साथ नहीं थे और इसलिए उन्होंने इसका समर्थन नहीं किया.’ भाजपा के किसी भी प्रमुख नेता ने आज तक मोदी से ऐसी असहमति व्यक्त करने का साहस नहीं दिखाया है. जिन्होंने ऐसा किया, वे राजनीतिक रूप से भाजपा में अपने सम्मान और हैसियत को सुरक्षित नहीं रख पाए और आरएसएस का समर्थन भी उन्हें कभी नहीं मिला. उन्हें सिर्फ पार्टी द्वारा नजरअंदाज किया गया. जब मोदी कहते हैं कि वह एक चौकीदार (चौकीदार) हैं, तो पार्टी के सभी सदस्य खुद को चौकीदार कहने लगते हैं. निःसंदेश यह चापलूसी है.




कोई कह सकता है कि चुनावों में मतदाताओं ने राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी को तौला, और लोगों ने राहुल से ज्यादा मोदी को वजनदार पाया और उन्हें पसन्द किया. सच तो यह है कि इस बार हिंदुस्तान में चुनाव जैसा अमेरिका आदि देशों में सीधे सरकार के मुखिया को चुनने के लिए होता है, देखने में वैसा ही लगता है और इस इस निष्कर्ष पर पहुंचने के तर्क को वजनदार बनाता है. चुनाव के दौरान मतदाताओं ने राहुल को एक ऐसी शख्सियत जो गम्भीर और अयोग्य होते हुए बदकिस्मत भी है, ही माना. राहुल ने अपनी बहुत सारी टिप्पणियों में बार-बार नफरत का मुकाबला प्यार से करने की गांधीवादी राह पर चलने की अपनी मंशा जाहिर की लेकिन इसके ठीक उलट उनका मोदी विरोधी नारा, ‘चौकीदार चोर’ है के साथ कोई तालमेल नहीं बन पाया और न लोगों को तर्कसंगत ही लगा. फिर भी उन्होंने अपने अभियान में अन्य पहलुओं, जैसे देश में शिक्षित युवाओं के बेरोजगारी और किसानों के कृषि संकट आदि से गुजरने के बारे में भी कहना जारी रखा, जिसे मतदाताओं ने ज्यादा महत्व नहीं दिया.

यह भी कहा जाता है कि राहुल गांधी की ‘न्याय’ योजना बहुत देर से आई – और लोगों ने उसे एक भाग-दौड़ में परोसी गयी योजना समझ, एक किनारे लगा दिया. जनता समझ नहीं पा रही थी कि यह सब क्या है. हालांकि एक और तर्क विचार के योग्य है, वह यह कि ‘न्याय योजना’ नैतिकता के धरातल पर मजबूत होते हुए भी, राजनीतिक रूप से एक नासमझी से भरी मानी गयी क्योंकि भारत में तेजी से एक मध्यवर्गीय समाज का दायरा बढ़ता जा रहा है. ‘न्याय योजना’ गरीबों, जो आज देश की कुल आबादी का मात्र 20 प्रतिशत है, के भले की चिंता करने तक सीमित रह गयी. (कुछ लाईने मैं अपनी तरफ से जोड़ रहा हूंं, जो इस लेख का हिस्सा नहीं है : ‘नमो टीवी’ पर मध्य वर्ग के लिए तमाम योजनाओं, कार्यक्रमों, और नीतियों पर मोदी सरकार के सरोकारों, चिंंताओं पर पूर्व में रिकॉर्ड किये कार्यक्रम निरन्तर दिखाए जाते रहे.) देश में मध्यवर्गीय समाज गरीबों की तुलना में कई गुना ज्यादा है. न्याय योजना इसलिए भी मध्यमवर्गीय समाज के बीच अप्रासंगिक बन गई. न्याय योजना गरीबों तक पहुंच नहीं पायी, इसलिए राहुल को गरीबों का वोट नहीं मिला और मध्यम वर्ग के वोट का बहुत नुकसान हुआ. 2019 में नैतिक वांछनीयता और राजनीतिक तर्कसंगतता का सीधे सीधे टकराव हुआ, जिसमें राजनैतिक तर्कसंगतता वांछनीय नैतिकता पर भारी पड़ी.




लेकिन क्या यह चुनाव मुख्य रूप से आर्थिक मुद्दों के बारे में था ? मोदी ने आर्थिक मुद्दों से एक सुरक्षित दूरी बनाए रखी. इसके बजाय, उन्होंने ‘राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रवाद’ को चुनाव के केंद्र में रखकर अपना पूरा ध्यान गरीबों की तरफ फिसले बिना, बड़ी निर्दयता से, पूरे ढोल-नगाड़ों के साथ इसी पर केंद्रित रखा और अगर ऐसा है, तो चुनाव परिणामों की विवेचना केवल ‘राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रवाद’ तक सीमित रख कर नहीं की जानी चाहिए.

यहां पर यह ध्यान में रखना उचित होगा कि चुनावों में मतदाता एक ही दृष्टिकोण को सामने रख कर मतदान नहीं करते. विभिन्न क्षेत्रों के मतदाताओं की भावनाएं भिन्न-भिन्न होती हैं और मतदाता उनके वशीभूत मतदान करते हैं. जो चुनावों के आंकड़ों में आये बदलावों में स्पष्ट दिखते हैं. अगर हम चुनाव के आंकड़ों में आये बदलावों की व्याख्या तर्कसंगत तरीके से परिणामों से जोड़ कर नहीं कर सकते तो, तो चुनाव की विवेचना करने के मायने क्या होंगे ? जबकि इसका उपयोग – अनिवार्य रूप से एक राजनीतिक मुद्दा है. राजनेता विभिन्न कारकों के सापेक्ष महत्व को निर्धारित करने के लिए विश्लेषकों का इंतजार नहीं करते हैं. वे आगे बढ़ते हैं और एक तरह से जीत का उपयोग वे अपने अनुकूल उद्देश्यों के लिए करते हैं. वे जीतने के लिए जो कुछ भी करें, लेकिन सत्ता में एक बार पहुंचने के बाद वे अपने वैचारिक लक्ष्यों को जरूर जमीन पर उतारेंगे.




यहांं देश के सामने इस चुनावी जीत के बाद का बड़ा खतरा खड़ा है. मेरे मन में कोई संदेह नहीं है कि भाजपा और आरएसएस की विचारधाराओं जिसे नेतृत्व के उच्चतम स्तर ने जन्म दिया जाता है, और उस नेतृत्व को अनुषांगिक बता कर नकारा नहीं जा सकता है, इस चुनाव में हिंदू राष्ट्रवाद की परियोजना का समर्थन किया गया है – अर्थात् एक हिंदू राष्ट्र राज्य निर्माण का समर्थन. आतंकी आरोपी प्रज्ञा ठाकुर और महात्मा गांधी की हत्यारे को नायक और देशभक्त बताने वाले की जीत की व्याख्या कोई और कैसे कर सकता है ? अमित शाह के इस दावे को कोई और कैसे समझ सकता है कि बांग्लादेश या म्यांमार के मुस्लिम प्रवासी ‘दीमक’ हैं, और वह हिंदू, बौद्ध, सिख और जैन को छोड़ कर उन सभी अप्रवासियों को बाहर फेंक देंगे. राहुल गांधी के वायनाड को दूसरे निर्वाचन क्षेत्र के रूप में चुनने पर मोदी की आलोचना कि ‘वहां अल्पसंख्यक ही बहुसंख्यक है’, को कोई कैसे लेता है ? क्या मुस्लिम और ईसाई हिंदुओं के समान नागरिक नहीं हैं ? इससे भी बड़ी बात यह है कि 23 मई को अपनी जीत के बाद भाषण में मोदी के बयान कि ‘इस चुनाव में ‘सेकुलरिस्टों’ को शक्तिहीन और बे-नकाब कर दिया है, अब वो देश को गुमराह नही कर सकते,’ को कोई कैसे लेता है ?

इतने सब के बाद सन्यासियों की तरह मोदी का यह कहना कि वे अल्पसंख्यकों के विश्वास को जीतना चाहते हैं, पर्याप्त नहीं है.




2015-16 में लिंचिंग शुरू होने के बाद से, भारत में बहुत से मुसलमानों डरे हुए हैं. एक समय था जब जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में मुख्यधारा की राजनीति का दावा था कि ‘मुस्लिम चिंताएंं और भय हमारी चिंताएंं और भय’ है. पूरा देश उनसे निपटने के लिए एकजुट और हर समय तैयार रहता था. उस समय भी दंगे हो सकते थे, खासकर इंदिरा गांधी के शासनकाल के दौरान हुए भी, लेकिन राजनीति के शीर्ष पायदानों से, यह दावा कभी नहीं किया गया कि अल्पसंख्यकों के लिए संवैधानिक रूप से वैध संरक्षण देश के साथ धोखा या झूठ बोलने जैसा और देश के स्वास्थ के लिए हानिकारक है. 2014 के बाद से, यह बहस सत्ता के गलियारों से गायब हो गई है. इस चुनाव के परिणाम अनवरत चली आ रही इस विचारधारा को जबरदस्त तरीके से पीछे धकेलने वाले हैं.

यदि 2019 के चुनावों के निष्कर्षों की यह व्याख्या सही है, तो निश्चित ही एक बदला हुआ भारत हमारी प्रतीक्षा कर रहा है. जरूरी नहीं कि यह बदलाव (कायापलट) हो ही जाए, लेकिन भाजपा को मिली यह बढ़त इसे सम्भव बना सकती है. यह भी उतना ही सच है कि हिन्दू राष्ट्र का बनना, बहुत दर्दनाक और देश को अस्थिर करने वाला साबित होगा.

(लेखक, सोल गोल्डमैन, सेंटर फॉर कंटेम्पररी स्टडीज, दक्षिण एशिया के निदेशक, वॉटसन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल एंड पब्लिक अफेयर्स, ब्राउन विश्वविद्यालय अंतर्राष्टीय स्टडीज व सामाजिक विज्ञान के प्रोफेसर हैं.)




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