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लाशों पर मंडराते गिद्ध ख़ुशी से चीख रहे हैं ! देशवासियो, होशियार रहो !

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लाशों पर मंडराते गिद्ध ख़ुशी से चीख रहे हैं ! देशवासियो, होशियार रहो !

यह समय उन्‍माद में पागल हो जाने का नहीं, ठण्‍डे दिमाग़ से सोचने का है. कश्‍मीर की आम आबादी का बड़ा हिस्‍सा आज सेना और अर्द्धसैनिक बलों के विरोध में क्‍यों है ? ख़ुद सेना की रिपोर्टें बताती हैं कि पिछले चार सालों में उग्रवादियों के साथ जाने वाले स्‍थानीय युवकों की संख्‍या बढ़ गयी है. ऐसा क्‍यों हुआ है ? आज सोशल मीडिया पर अनेक पढ़े-लिखे मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवी भी पूरे कश्‍मीरी अवाम को ’’एहसान फ़रामोश’’ घोषित करके उन्‍हें सबक़ सिखाने की चीख़-चिल्‍लाहट में सुर मिला रहे हैं. उन्‍हें अपने दिमाग़ की नसें थोड़ी ढीली करके संजीदगी के साथ यह सोचना चाहिए कि कश्‍मीर में भी हमारी-आपकी तरह इंसान ही रहते हैं. सालों-साल अपमान और दमन का सिलसिला चलता रहेगा, हज़ारों गुमनाम क़ब्रों से घाटी भर जायेगी, बलात्‍कार और फ़र्ज़ी मुठभेडों में मासूमों की हत्‍याओं के दोषियों को बचाया जायेगा, बच्‍चों तक को मारा और प्रताड़ि‍त किया जायेगा, और समाज में क्रान्तिकारी बदलाव का कोई रास्‍ता नज़र नहीं आयेगा, तो हताशा और प्रतिशोध की भावना आतंकवादियों के पैदा होने की ज़मीन तैयार करेगी ही.

पुलवामा के आतंकवादी हमले में 40 जवानों की भीषण मौत पर देश के आम लोग ग़मज़दा हैं. उनमें ग़ुस्‍सा भी स्‍वाभाविक है. आम घरों के बेटों की इस तरह मौत की यह पहली घटना भी नहीं है. कोई भी संजीदा सरकार और समाज ऐसी घटना के दोषियों को सज़ा देने और साथ ही घटना के कारणों के बारे में सोचेगा और कार्रवाई करेगा लेकिन अभी क्‍या हो रहा है ?

टीवी पर एंकरों की पागलपन भरी चीख़ों और देश बेचने वाले नेताओं की देशभक्ति के पाखण्‍ड के बीच असली सवालों को छुपाया जा रहा है. किसी भी देश, समाज, परिवार के लोगों की एकता उसकी सबसे बड़ी ताक़त होती है लेकिन वो कौन लोग हैं, जो अपने ही देश के नागरिकों पर हमले करवा रहे हैं, जनता के एक हिस्‍से को जनता के दूसरे हिस्‍से के ख़ि‍लाफ़ भड़का रहे हैं ? दूसरों को राजनीति न करने की सीख देकर ख़ुद इस त्रासदी का इस्‍तेमाल वोटों की फसल काटने के लिए करने में जुट गये हैं ?

पुलवामा के हमले के बाद देश में जो कुछ हो रहा है, वह कतई अप्रत्‍याशित नहीं है.

जनता से किये हर वादे की कलई खुल जाने और राफ़ेल सहित भ्रष्‍टाचार के अनेक मामलों में बुरी तरह फंसने के बाद राम मन्दिर का मुद्दा गरमाने की कोशिशें भी टांय-टांय फिस्‍स हो चुकी थीं. ऐसे में सीमा पर तनाव और युद्धोन्‍माद भड़काना फ़ासिस्‍टों का पुराना आज़मूदा नुस्‍खा है और संघियों को जानने वाले लोग लगातार अन्‍देशा प्रकट कर रहे थे कि चुनाव के पहले युद्धोन्‍माद पैदा करने की कोशिश मोदी सरकार और संघ परिवार का आखि़री हथकण्‍डा हो सकता है.




ऐसे में पुलवामा की घटना के बाद राजनीतिक घटनाक्रम उसी दिशा में जा रहा है, जिसका अन्‍देशा था. जम्‍मू से लेकर बिहार तक अनेक जगहों पर कश्‍मीरी लोगों पर हमले किये जा रहे हैं. उनकी दुकानें जलाई जा रही हैं, घरों से भगाया जा रहा है. कश्‍मीर की बिगड़ी अर्थव्‍यवस्‍था और रोज़गार के अवसर नदारद होने के कारण बड़ी संख्‍या में ग़रीब आबादी देशभर में छोटे-मोटे काम करके गुज़ारा कर रही है. हज़ारों कश्‍मीरी छात्र विभिन्‍न राज्‍यों में पढ़ाई कर रहे हैं. अधिकांश जगहों पर हिन्‍दुत्‍ववादी गुण्‍डे उन आम लोगों पर हमले करके अपनी देशद्रोही ’’वीरता’’ का परिचय दे रहे हैं. भाजपा आईटी सेल और संघ परिवार के लाखों वर्कर बर्बर युद्ध उन्‍माद और नफ़रत भड़काने के साथ ही चुनाव को टालने और मोदी के हाथ मज़बूत करने का अभियान छेड़ चुके हैं. आगरा में तो सड़कों पर बाकायदा चुनाव स्‍थगित करने के नारे लगे हैं.

टीवी ऐंकरों से लेकर फ़ि‍ल्‍मी सितारों और मध्‍य वर्ग के निठल्लों तक, अपने आरामदेह कमरों में बैठकर मुंह से झाग छोड़ते हुए जंग छेड़ देने, आग लगा देने, पाकिस्‍तान को तबाह कर देने की चीख़-पुकार मचाये हुए हैं लेकिन यह बुनियादी सवाल कोई नहीं पूछ रहा कि इतना बड़ा हमला हुआ कैसे ? ख़ुद सेना की रिपोर्टें बताती हैं कि पिछले साढ़े चार सालों में कश्‍मीर के हालात बदतर हुए हैं. आतंकवादी हमलों की घटनाएं भी बढ़ी हैं और मरने वालों की संख्‍या भी. इस घटना से चन्‍द दिन पहले ख़ुफ़िया रिपोर्ट में आईईडी से हमले की चेतावनी जारी की गयी थी. फिर भी सीआरपीएफ़ का इतना लम्‍बा कॉनवॉय रवाना किया गया और सुरक्षा की सामान्‍य बातों की भी अनदेखी की गयी. जम्‍मू-कश्‍मीर के राज्‍यपाल ने बेशर्मी से मान भी लिया कि ’’गम्‍भीर चूक’’ हुई है लेकिन रणबांकुरे ऐंकरों से लेकर सरकार चला रहे नेताओं तक कोई इन सवालों पर नहीं बोल रहा. यह स्थिति स्‍पष्‍टतः सन्‍देह पैदा करती है.




तमाम संघी, मोदीभक्‍त और यहां तक कि कुम्‍भ के फ़ाइव-स्‍टार टेंट में बैठे साधु-सन्‍त भी चिल्‍ला रहे हैं कि उनको इजाज़त दे दी जाये तो आतंकवादि‍यों को मसलकर रख देगे, पाकिस्‍तान का नामो-निशान मिटा देंगे, पर उन्‍हें रोका किसने है ? जब देश भर में दंगे और साम्‍प्रदायिकता भड़काते हो तो क्‍या किसी की इजाज़त लेते हो ? उठाओ अपनी लाठी और कमण्‍डल और चले जाओ सीमा पर. ये सब लाशों की राजनीति करने वाले गिद्ध हैं. बात-बात में पाकिस्‍तान को तबाह कर देने के नारे देने वाले संघियों से कोई यह नहीं पूछता कि अम्‍बानी, अडानी, जिन्‍दल की कम्‍पनियों के लिए सौदे तय करने के वास्‍ते जब मोदी वहां पहुंच जाता है तब उनकी देशभक्ति पर आंच क्‍यों नहीं आती ? राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के बेटे की कम्‍पनियों की पाकिस्‍तानी पूंजीपति के साथ साझेदारी खत्‍म करने की कोई घोषणा क्‍या सुनी आपने ?

यह समय उन्‍माद में पागल हो जाने का नहीं, ठण्‍डे दिमाग़ से सोचने का है. कश्‍मीर की आम आबादी का बड़ा हिस्‍सा आज सेना और अर्द्धसैनिक बलों के विरोध में क्‍यों है ? ख़ुद सेना की रिपोर्टें बताती हैं कि पिछले चार सालों में उग्रवादियों के साथ जाने वाले स्‍थानीय युवकों की संख्‍या बढ़ गयी है. ऐसा क्‍यों हुआ है ? इतिहास से परिचित सभी जानते हैं कि कश्‍मीर के आम अवाम ने शेख़ अब्‍दुल्‍ला की अगुवाई में जिन्‍ना की साम्‍प्रदायिक राजनीति का विरोध किया था. अगर भारत की सरकारों ने संघात्‍मक ढांचे को वास्‍तव में लागू किया होता, और कश्‍मीरी जनता के साथ किये करार को तोड़ा नहीं होता, साफ़-साफ़ वादाखि़लाफ़ी न की होती, तो कश्‍मीर की स्थिति ऐसी नहीं होती. 1948 में पाकिस्‍तानी सेना की मदद से कबायलियों के हमले के खि़लाफ़ कश्‍मीरी अवाम ने भी लड़ाई लड़ी थी. उसके बाद भी घाटी में आतंकवाद का माहौल दशकों तक नहीं था, हालांकि भारतीय राज्‍य के बर्ताव को लेकर असन्‍तोष पनप रहा था. 1953 में शेख अब्‍दुल्‍ला की सरकार को बर्खास्‍त करके उन्‍हें 11 वर्ष तक जेल में बन्‍द रखने और जितना भी बुर्जुआ लोकतांत्रिक स्‍पेस देश में था, उसे भी कश्‍मीर में लगातार कम करते जाने से यह असन्‍तोष और अविश्‍वास और बढ़ा. 1987 में फ़र्ज़ी चुनाव के बाद उग्रवादी गतिविधियां तेज़ी से बढ़ीं और 1990 से गर्वनर के रूप में जगमोहन के कार्यकाल के दौरान कश्‍मीरी जनता पर बर्बर दमन और अनेक भीषण गोलीकांडों में सेना के हाथों आम लोगों की मौत के बाद हालत बद से बदतर होते गये. पाकिस्‍तान को भी जमकर दखलन्‍दाज़ी करने का मौक़ा मिला.




आज सोशल मीडिया पर अनेक पढ़े-लिखे मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवी भी पूरे कश्‍मीरी अवाम को ’’एहसान फ़रामोश’’ घोषित करके उन्‍हें सबक़ सिखाने की चीख़-चिल्‍लाहट में सुर मिला रहे हैं. उन्‍हें अपने दिमाग़ की नसें थोड़ी ढीली करके संजीदगी के साथ यह सोचना चाहिए कि कश्‍मीर में भी हमारी-आपकी तरह इंसान ही रहते हैं. सालों-साल अपमान और दमन का सिलसिला चलता रहेगा, हज़ारों गुमनाम क़ब्रों से घाटी भर जायेगी, बलात्‍कार और फ़र्ज़ी मुठभेडों में मासूमों की हत्‍याओं के दोषियों को बचाया जायेगा, बच्‍चों तक को मारा और प्रताड़ि‍त किया जायेगा, और समाज में क्रान्तिकारी बदलाव का कोई रास्‍ता नज़र नहीं आयेगा, तो हताशा और प्रतिशोध की भावना आतंकवादियों के पैदा होने की ज़मीन तैयार करेगी ही.

कश्‍मीर घाटी पिछले लम्‍बे समय से दुनिया का सबसे ज़्यादा सैन्‍यकृत क्षेत्र बना हुआ है. हर 8 कश्‍मीरियों पर सेना का एक जवान वहां तैनात है. पुलवामा में मारे गये जवान देश के आम घरों के बेटे थे. ऐसी हर घटना में आम सिपाही ही मरते हैं लेकिन ज़रा ठण्‍डे दिमाग़ से, व्‍हाट्सऐप संदेशों और टीवी चैनलों की हुंकार से भडकी उत्‍तेजना को किनारे रखकर सोचिये, ये सैनिक कश्‍मीर में पिकनिक मनाने नहीं जा रहे थे. भारतीय राज्‍य के दशकों से जारी दमनचक्र के मोहरे ही बनाकर भेजे गये थे वे. सिर्फ़ कश्‍मीर ही क्‍यों ? उत्‍तर-पूर्व के राज्‍यों में जाकर देखिये. मणिपुर में जिन मांओं को सेना के खि़लाफ़ नग्‍न प्रदर्शन करने पर मजबूर होना पड़ा था, वे देशद्रोही नहीं थीं. इरोम शर्मिला की 11 वर्ष चली भूख हड़ताल देशद्रोह नहीं थी. कश्‍मीर में कुनान पश्‍पोरा में उस भयानक रात के सामूहिक बलात्‍कारों की हक़ीक़त अब सबके सामने आ चुकी है. देश काग़ज़ पर बना नक़्शा नहीं होता. देश यहां रहने वाले लोगों से बनता है. कश्‍मीर में मारे जाने वालों का दर्द कभी आपने महसूस किया ?




एक और बात. अन्‍धराष्‍ट्रवाद और युद्धोन्‍माद की ज़रूरत जितनी भारत के शासक वर्गों को है, उतनी ही पाकिस्‍तान के शासक वर्गों को भी है, जिसका एक ताक़तवर हिस्‍सा पाकिस्‍तानी सेना के जरनल भी हैं. पाकिस्‍तानी अर्थव्‍यवस्‍था की हालत बुरी है, लम्‍बे-चौड़ी बातें करके सत्‍ता में आये इमरान ख़ान को वहां के लोग भी सेना की कठपुतली से ज्‍़यादा नहीं मान रहे. सीमा पर तनाव दोनों देशों के शासक वर्गों के हित में है. किसी भी अपराध के पीछे मकसद पता करने का एक तरीक़ा यह देखना है कि उससे किसका फ़ायदा हो रहा है ? सीमा के इधर और उधर किसे फ़ायदा हो रहा है, यह देखना अब मुश्किल नहीं है.

सबसे बड़े गिद्धों की बात किये बिना बात अधूरी रहेगी. पूरी दुनिया के साम्राज्‍यवादी देशों की अर्थव्‍यवस्‍थाएं संकट में हैं. युद्धों में होने वाली तबाही और हथियारों की बिक्री उनके संकट को दूर करने में हमेशा काम आते हैं. यह आम जानकारी है कि दुनिया में हथियारों की सबसे बड़ी ख़रीदारी करने वालों में भारत-पाकिस्‍तान और मध्‍य-पूर्व के देश हैं. मध्‍य-पूर्व में तो सूडान से लेकर यमन तक तबाही और हथियारों का कारोबार गर्म है ही, अब अगर भारतीय उपमहाद्वीप में फिर युद्ध भड़कता है तो साम्राज्‍यवादी गिद्धों की बन आयेगी. दोनों तरफ़ की सरकारें जनता का पेट काटकर जमकर हथियार ख़रीदेंगी और अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैण्‍ड, जर्मनी के साम्राज्‍यवादियों को अपना संकट थोड़ा और टालने का मौक़ा मिल जायेगा.

  • साथी राजीव रंजन के सौजन्य से प्राप्त





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